Monday, June 25, 2012

विश्वामित्र एक दर्शन

विश्वामित्र-महान भारत
हमारा देश भारत सदियो से परम गहन ज्ञान की नीव पर खडा है। ज्ञान का आदर जितना भारत देश ने किया है, उतना किसी और ने नही। इसी कारण यह देश इतने आक्रमण इतना सब कुछ सहकर भी स्थिर बना रहा। कवि ने ठीक ही कहा है-
‘‘यूनान मिस्श्र रोम सब मिट गये जहां से,
कुछ बात है कि हस्ती मिटती नही हमारी’’
आज हमारा दुर्भाग्य है कि इस महान को हम काफी कुछ भूल गए है अथवा स्वार्थवश उसको अपनाने में संकोच कर रहे हैं। परन्तु यह ज्ञान नष्ट नही हुआ है। हिमालय कि ऋषि सत्ताओ के संकल्प से इसका पुन: उदय होने जा रहा है और यह सम्पूर्ण विश्व को एक नया आलोक प्रदान करेगा।
जो ज्ञान की खोज करता है व जिसे ज्ञान की उपलब्धि होती है वह गहरा हो जाता है अंहकार से रहित होता जाता है। भारतीय ऋषियों ने ज्ञान का अगाध भंण्डार प्राप्त कर वेद, दर्शन शास्त्र, गीता, स्मृतियाँ, उपनषदों जैसे महान ग्रन्थों का सम्पादन किया। इतना सब कुछ करने के बाद उन्होंने नेति-नेति का उद्घघोष किया अर्थात न इति अर्थात यही पर ही इसका समापन नहीं है अर्थात ज्ञान की खोज जारी रखना। जो समाज जाति ज्ञान की खोज जारी न रख अपने विवके की आँख बंद कर देती है उसका अध पतन हो जाता है। जिनका ज्ञान सीमित है वो अहंकारी है व उसकी सीमा के भीतर स्ंवय के बाँधे रखना चाहते है। परंतु जो असीम के पुजारी है वो विन्रम हैं वो कहते है जो कुछ भी सृष्टि में ज्ञान का भण्डार उपलब्ध है उससे तो लाभान्वित होओं साथ-साथ ज्ञान की खोज जारी अवश्य रखना। इसमें प्रमाद न करना। धन्य है वह पुण्य भूमि भारत जिसने इतना कुछ दिया सम्पूर्ण जगत को तथा जहाँ से जो कुछ जो अच्छा मिला उसके आत्मसात किया, इसलिए भारत विभिन्न संस्कृतियों का एक संगम हैं यहाँ व्यक्तिवादिता के लिए कोर्इ स्थान कभीं नहीं रहा। सबके प्रति प्रेम, सबके प्रति उदारता, सबके प्रति सहिष्णुता, सबके प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण। यही सिखाया है मेरे भारत की महान संस्कृति ने पूरे विश्व को, यही देन है भारत की सम्पूर्ण विश्व के लिए एक संदेश के रूप में।
विश्वामित्र-एक आहवान
आज भारत माता अपने उन वीर पुत्रों का आहवान करती है जो अपने मोह बंधन ढीले कर मां की पीडा को समझ सकें उसको दूर करने के लिये एक जुट हो सकें। धरती पर बढ रहे पाप, पीडा, अनाचार, दुराचार, पशुवध को रोकने के लिये आगे आ सकें। क्या ऐसी दुर्दशा देखकर र्इसा करूणा, महावीर साहस, बुद्ध का विवेक किसी में नही उत्पन्न होगा। क्या हम सब अलग-अलग लकीर ही पीटते रह जायेंगे।
धरती मां पर हो रही त्राहि-त्राहि से आकुल मंगलमय भगवान अपने इन सभी प्यारी संतानों को पुकार रहें हैं। जिन्होंने रीछ वानरों के रूप में अपने प्राणों की बाजी लगा दी थी असुरता निवारण के लिये, जिन्होंने ग्वाल बातों के रूप में भगवान का साथ दिया था, जिन्होंने पाण्डवों के रूप में निष्काम कर्मयोग का आदर्श स्वीकार किया था।
क्या आज भी वास्तव में हम भगवान से उतना प्रेम करते हैं? प्रेम की परिभाषा सदा विपत्ति में समझ आती है। आज संपूर्ण मानवता संकट में है आज सभी पशु पक्षी भयातुर हो कर भगवान को पुकार रहें हैं। यह विपत्ति काल है, संपूर्ण धरती का अस्तिव संकट में आ गया है। जो प्रज्ञाचक्षु से देख सकते हैं जो विवेक बुद्धि से सोच सकते हैं जिनके अंतर में भाव संवेदानाओं की सरिता बह रही है वो जाग्रत आत्मा आओं कृष्ण की वंशी सुनो, राम के धनुष की टंकार सुनो भारत मां के आंसू पोछने के लिये अपने अहं, अपने स्वार्थ, अपने मोह बंधन त्याग दो। पीला बासंती पहनो और तैयार हो जाओ विवेक के पथ पर, शौर्य के पथ पर, त्याग बलिदान के पथ पर चलने के लिये तभी भारत मां आसुरी शक्तियों की कैद से मुक्त हो सकेगी।
क्या इस विषय में आप अपने स्वार्थ में उलझे रह जाओगे? क्या भक्ति गीत गा-गाकर भगवान से झूठे प्रेम का दिखावा करते रहोगे? यदि प्रेम करते हो तो त्याग के द्वारा, बलिदान के द्वारा अपने प्रेम की भावना को प्रगाढ करो।
क्या पाखंड करते-करते, क्या स्वार्थों में उलझे-उलझे मानव की आत्मा इतनी दुर्बल हो गयी है कि वो युगधर्म का पालन करने के लिये अपना मन नही बना पा रहा है? उसे रोगग्रस्त व्यक्ति, गरीब व्यक्ति, लाचार कटते पीटते कैद पशु पक्षियों की आह नही सुनायी दे रही।
जागो ओ मानव की आत्मा जागो, दुर्बलता को त्यागो साहस का वरण करो, संयम का वरण करो, सेवा के पथ का वरण करो।
आओ हम सब भारत मां के प्यारे बेटे राष्ट्र के नवनिर्माण के लिये एकजुट हो सकें, दृढ संकल्पित हो सकें। मां को विश्वास दिला सकें कि मां आयी तो भगतसिंह का खून, गुरू गोबिंद सिंह का खून हमारी रगों में है। मां तेरी रक्षा के लिए हम कुछ भी कर सकते हैं। मां हमें आशीर्वाद दो तेरे सपूत बनकर हम तुझे स्वर्णिम सिंहासन पर विराजमान करने का महासंकल्प पूरा करें।
मुझे तो तुझको पाना है। यदि दुख से मैं तेरे समीप पहुंच सकूं तो मुझे दुख दो और यदि सुख से मैं तेरे समीप पहुंच सकूं तो मुझे सुख दो। निर्णायक मैं नही तू है। यह तू बेहतर जानता है कि मेरे हित में क्या है? जिस भी विधि से मुझे जीवन के अंतिम सत्य की उपलब्धि हो सके तू वह कर। मुझे तुझ पर पूरा भरोसा है, पूर्ण विश्वास है।
युग परिवर्तन की घडी तेजी से निकट आती चली आ जा रही है। यह समय प्रसव पीड़ा का है अग्नि परीक्षा का है इनमें सबसे अधिक परीक्षा उन समर्थ आत्माओं की होगी, जो संस्कार सम्पन्न समझी जाती है। उन्हें अपना जीवनक्रम ऐसा ढालना होगा, जिसको देखकर दूसरे भी वैसा ही अनुकरण कर सकें। चरित्र की शिक्षा वाणी से नहीं, अपना आदर्श प्रस्तुत करके ही दी जा सकती है। सेा जिनमें भी मानवीय गरिमा और दैवी महानता के जितने अंश विद्यमान है, उन्हें उसी अनुपात से अपने दुस्साहसपूर्ण कर्तव्य को विश्व मानव के सम्मुख प्रस्तुत करने के लिए दृढतापूर्वक अग्रसर होना चाहिए।  
जय हिन्द ! जय भारत !
विश्वामित्र-सदज्ञान का संचय
सुख धन के ऊपर निर्भर नहीं; वरन सद्ज्ञान के ऊपर, आत्मनिर्भाव के ऊपर निर्भर है। जिसने आत्मज्ञान से अपने दृष्टिकोण को सुसंस्कृत कर लिया है, वह चाहे साधन सम्पन्न हो चाहे न हो, हर हालत में सुखी रहेगा। परिस्थितियाँ चाहे कितनी भी प्रतिकूल क्यों न हो। वह प्रतिकूलता में अनुकूलता का निर्माण कर लेगा। उत्तम गुण और उत्तम स्वभाव वाले मुनष्य बुरे लोगों के बीच रहकर भी अच्छे अवसर प्राप्त कर लेते हैं।
विचारवान मनुष्यों के लिए सचमुच ही इस संसार में कहीं कोर्इ कठिनार्इ नहीं है। शोक, दु:ख, चिन्ता और भय का एक कण भी उन तक नहीं पहुँच पाया। प्रत्येक दशा में वे प्रसन्नता, संतोष और सौभाग्य अनुभव करते रहते है।
सद्ज्ञान द्वारा आत्मनिर्माण करने का लाभ धन जमा करने के लाभ की अपेक्षा अनेक गुना महत्वपूर्ण है। सचमुच जो जितना ही ज्ञानवान है। वह उतना ही बडा धनी है। यही कारण है कि निर्धन ब्राह्मण को अन्य सम्पन्न वर्णो की अपेक्षा अधिक सम्मान दिया जाता है।
मनुष्य की सबसे बड़ी पूँजी ज्ञान है। इसलिए वास्तविकता को समझो, धन के पीछे रात-दिन पागल रहने की अपेक्षा, सदज्ञान का संचय करो। आत्मनिर्माण की ओर अपनी अभिरूचि को मोडो।
मन की खिड़कियों को खुला रखना और जहाँ कहीं से भी अच्छे विचार (अथवा concept) प्राप्त हों, उन्हें ग्रहण करना हमेशा अच्छा होता है। भगवान साधको को आवश्यक ज्ञान प्रदान करने के लिए किसी भी वस्तु या माध्यम का उपयोग कर सकते है। एक प्राचीन आख्यान है कि जब भारत के विशिष्ठ संतों में से किसी एक से पूछा गया कि आपका गुरू कौन है, तो उन्होंने उत्तर दिया, ‘‘मेरे 24 गुरू है।’’ ‘‘वे 24 कौन है?’’ उन्होंने उत्तर दिया, ‘‘वायु, सूर्य, मेद्य, वृक्ष, पशु, पक्षी- उनमें से हर एक से मुझे शिक्षा मिलती है, वे सभी मेरे गुरू है।’’
हमारा मनोभाव यही होना चाहिए कि हमें सबसे अलग नहीं रहना है बल्कि जहाँ से भी हमें उपलब्ध हो सकें वहाँ से यथार्थ, बोध, सहायता और ज्ञान ग्रहण करना चाहिए। कर्इ बार ऐसा होता है कि जब किसी आत्म जिज्ञासु को कठिनाइयों या समस्याओं का सामना करना पड़ता है तब यदि उसमें सच्ची निष्ठा हो तो कोर्इ ग्रंथ या संकेत उसे प्राप्त होगा और उससे समाधान प्राप्त होगा।
बहुत से व्यक्तियों का ऐसा अनुभव रहा है कि यदि हम प्रतिदिन सवेरे 4-5 पृष्ठ (आध्यात्मिक) पढ़ते रहे तो वह एक आत्मा की खुराक बन जाता है। दिन भर की सारी रंगत ही बदल जाती है। ऐसे व्यक्ति अपने घर से एक सुदृढ़ समत्व के साथ बाहर निकलते है, व जीवन की चुनौतियों का सामना करते है, उनकी कठपुतली बनकर उनसे दु:खी नहीं होते।


विश्वामित्र नियमावली

1.      मंगलमय भगवान की प्रेरणा से भविष्य में अच्छी सोच रखने वाले व सबसे मित्रवत व्यवहार रखते हुए आत्मोन्नति के मार्ग पर चलने वाले लोगों का एक समूह उभरेगा जो सभी सामाजिक समस्याओं का निराकरण करेगा।
2.      स्वार्थवादी नहीं, सिद्धान्तवादी जीवन शैली अपनाना। हम प्रार्थना करते हैं हे प्रभु हम रीछ वानर ग्वाल बात की तरह तेरे अभिदान में भाग लें ।
3.      हम श्रेष्ठ आदर्शो व उच्च सिद्धान्तों को अपना गुरू मानते हैं।
4.      हम सब धर्म ग्रंथों व सब संतों का आदर करते है। व उनसे अच्छे सूत्र व प्रेरणाएं ग्रहण करने का प्रयास करते हैं।
5.      हम संस्थावादी नहीं सेवाभावी दृष्टिकोण में विश्वास रखते हैं।
6.      हम संघबद्ध होकर समाज से अन्याय, अनोति व अधर्म का उन्मूलन करने का प्रयास करेंगे।
7.      हमारा यह दृढ विश्वास है कि र्इश्वर का प्रसाद उनको प्राप्त होता है जो निष्काम कर्म योग के मार्ग पर चलने का प्रयास करते हैं
8.      युग की, समाज की, राष्ट्र् की आवश्यकता की पूर्ति हेतु जो कर्म अथवा प्रयास किए जाते है उन्हें निषकाम कर्म योग कहा जाता है।
9.      हम माह में दो अथवा चार अस्वाद व्रत रखना।
10.  प्रत्येक अस्वाद व्रत पर 1/2 से 1 प्रतिशत तक धन का दान।
11.  दान का बिना ख्याति की इच्छा किए। सुनियोजित ढंग से सदुपयोग।
12.  र्इश्वर से सदबुद्धि, समर्पण व सिद्धान्त के मार्ग पर चलने की नियमित प्रार्थना।
13.  माह में एक बार अथवा दो बार गोष्ठी व सामूहिक प्रार्थना
14.  माह में एक बार या दो बार कोर्इ एक सेवा कार्य
15.  अच्छी प्रेरणाप्रद पुस्तकों का नियमित पठन-पाठन।
16.  घर में दिव्य ऊर्जा हेतु वर्ष में एक बार जय-हवन
17.  हम राष्ट्र के एक जीवन्त, जागृत व जागरूक नागरिक की भूमिका निबाहने का प्रयास करेंगे।
18.  सतत आत्मचिंतन के द्वारा अपनी कमियों और बुरार्इयों पर कडी निगाह रखेंगे।
19.  परमात्मा एक है व उसके सिद्धान्त एक है जो भी नाम रुप प्रिय लगें उसी में उसका (जैसे साकार-राम कृष्ण, शिव दुर्गा आदि अथवा निराकार जैसे सूर्य, दीपक, ऊँ आदि) स्मरण किया जाए।
20.  जीवन में चार प्रकार के संयम (समय संयम, इन्द्रिय संयम, विचार संयम, अर्थ संयम) का अभ्यास ।
21.  परमात्मा उनको प्यार करता है जो उसके सिद्धान्तों का अनुसरण करते है व उसके गुणों को धारण करते है।
22.  जीवन में चार सूत्रों (साधना, स्वाध्याय, संयम, सेवा) का परिपालन।
23.  धर्म की शक्ति, धन की शक्ति से अधिक बलवान है इस सूत्र का दैनिक जीवन में परिपालन का प्रयास करेंगे।
24.   ब्रह्म बल, आत्म बल, मनोबल, शरीर बल को बढाने का सतत अभ्यास करेंगे व इसके लिए सन्तुलित जीवन शैली अपनाएंगे।

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