Sunday, December 9, 2012

कुण्डलिनी साधना की महत्ता पात्रता एवं कठिनाइयाँ-IV


कुण्डलिनी साधना में अनेक प्रकार के विघ्न, समस्याएं उत्पन्न होती रहती हैं जैसे विज्ञान के उच्चस्तरीय प्रयोगों में विभिन्न प्रकार की कठिनाइयों से जूझना पड़ता है ऐसे ही कुण्डलिनी साध्ना भी सरल नहीं है। अनेक प्रकार के भीषण अवरोधों से गुजरना पड़ता है इससे पार जाने के लिए इन अवरोधों से जूझने के लिए साहस, धेर्य, सहनशीलता व कष्ट सहिष्णुता जैसे सदगुणों का होना बहुत आवश्यक है।
जीवन क्या है? व्यक्ति क्यों जन्म लेता है, क्यों मृत्यु को प्राप्त होता है, मरने के बाद क्या व्यक्ति का अस्तित्व रहता है अथवा नहीं? इस प्रकार के प्रश्न कुछ व्यक्तियों को बहुत परेशान करते हैं। सिद्धार्थ नामक बालक को भी ये प्रश्न बहुत परेशान करते थे, इन्हीं प्रश्नों का समाधन पाने के लिए वह राजपाट त्यागकर साधना करने जंगल चला गया और एक दिन वह बोधिसत्व को प्राप्त हुआ अर्थात् उसे अपने सारे प्रश्नों का समाधन मिल गया। ये प्रश्न उन व्यक्तियों को अधिक परेशान करते हैं जिनमें चेतना का स्तर बढ़ा हुआ होता है। पशु को कभी किसी प्रकार के प्रश्न तंग नहीं करते, क्योंकि उनमें चेतना का स्तर कम होता है। ऐसे व्यक्ति कुण्डलिनी साधना करके इन सभी रहस्यों को जान सकते हैं, अत: ऐसे व्यक्तियों को कुण्डलिनी शक्ति की शरण में जाना चाहिए।
कुण्डलिनी साधक का जीवन सामान्य नहीं, असामान्य होता है। लोग आमतौर पर काम, क्रोध्, लोभ, मोह के बन्धनों में बंधे रहते हैं और उसी प्रकार पूरा जीवन व्यतीत कर देते हैं। कुण्डलिनी साधक अपने इन बन्धनों जंजालों में नहीं उलझता। वह दूसरे ढ़ंग का जीवन जीता है। इश्वरीय निर्देशानुसार अपने जीवन की रीति-नीति बनाता है। इसमें उसे अपने स्वजनों/सम्बं​धियों से विरोध् सुनना पड़ता है। इन सब विरोधों के उपरान्त भी यदि साधक उस परम पथ पर चलने का साहस जुटा पाये तभी कुण्डलिनी जागरण सार्थक एवं सफल हो पाती है।
आज समाज का प्रतिभाशाली वर्ग धन कमाने की इच्छा लेकर ही पूर्ण रूप से समर्पित है। धन के अलावा उसे और कुछ नहीं दिखाई देता। धन, यश, भोग, जमीन-जायदाद, वाहन यही सब बढ़ाते रहने की इच्छा लेकर वह पूरा जीवन गुजार देता है। आपकी क्या मनोभूमि है? क्या आपका चिन्तन भी धन के इर्द-गिर्द ही घूमता रहता है या आप धन को आवश्यकता पूर्ति के लिए अर्जित करना चाहते हैं। यदि आपको लगे कि आपका एक लाख रुपये प्रति वर्ष का खर्च है और आपके पास बैंक में पच्चीस-तीस लाख रुपये जमा हैं तो सम्भवत: आपको और धन कमाने की आवश्यकता नहीं प्रतीत होनी चाहिए। क्या आप अपना जीवन किसी और सार्थक उद्देश्य के लिए अर्पित करना चाहेंगे। सम्भवत: नहीं, क्योंकि धन के आकर्षण ने लोगों को इतना वशीभूत कर रखा है कि भले ही उन्हें धन की आवश्यकता न हो  फिर भी वो धन कमाने और जोड़ने में जुटे हुए हैं। आवश्यकता से अधिक धन यद्यपि उन्हें समस्या देता है उसके रखने, बचाव, आयकर (Income Tax) आदि सौ प्रकार के झंझट खड़े हो जाते हैं फिर भी व्यक्ति धन के चक्कर में अंधा हुआ पड़ा है। कुण्डलिनी साधक लोभ और अहं से परे हटकर विवेक की आँख से धन की जितनी महत्ता है उतना ही महत्व धन को देकर अपना जीवन अनावश्यक धन कमाने में बरबाद नहीं करता।
समाज का प्रतिभाशाली वर्ग एक प्रकार के Superiority Complex में जीता है अपने वर्ग के अलावा वह अन्य वर्ग को हेय दृष्टि से देखता है, परन्तु कुण्डलिनी साध्क में कोई Complex नहीं होता। वह तो विश्वामित्र होता है। सम्पूर्ण मानव जाति से मित्रवत व्यवहार करता है। सबकी सहायता करना अपना परम धर्म समझता है। क्या आप सबको समानता की दृष्टि से देखते हैं अथवा जाति-पाँति, ऊँच-नीच का भेदभाव आपके अन्दर समाया है? कुण्डलिनी साधक को पहले अपने भीतर समता ममता की दृष्टि उत्पन्न करनी चाहिए। कुण्डलिनी साधक अन्तर्मुखी होकर जीना चाहता है। बाहरी जगत् के व्यर्थ के दिखावों, आडम्बरों में उसकी कोई रुचि नहीं होती। उसका जीवन बहुत सीध-सादा एवं सरल होता है। उसके अन्दर से आनन्द रूपी रस का एक झरना फूटने लगता है जिसका रसास्वादन करने के लिए वह अन्तर्मुखी होकर रहना पसन्द करता है। बाह्य जगत् से सम्पर्क वह केवल इश्वर के दिव्य निर्देशों का पालन करने के लिए ही बनाता है। बाह्य जगत् से सम्पर्क बनाकर वह लोक-कल्याण के कार्य करता है। अपने किसी लाभ, दिखावे, अहं आदि के चक्कर से सदा दूर रहता है, क्योंकि ये सब बातें अन्तर्मुखी जीवन से दूर करती हैं।
कहते हैं कि पूत के पैर पालने में ही दिख जाते हैं। इसी प्रकार ऋषि-मुनियों की आèयात्मिक बातें कानों में पड़ते ही वह उसमें रुचि लेने लगता है। महर्षि अरविन्द विलायत से सिविल सर्विस की परीक्षा पास करके भारत लौटे। यहां की आèयात्मिक बातों में उन्हें इतनी रुचि जागृत हुई कि नौकरी की अपेक्षा उनको एक योगी बनना अधिक महत्वपूर्ण लगा और उन्होंने सिविल सर्विसिज् की उच्च प्रतिष्ठित नौकरी करने का विचार त्याग दिया। कुण्डलिनी साधक जैसे ही आèयात्मिक व योग आदि विषयों के सम्पर्क में आता है उसके अन्दर ये बातें सुनकर एक प्रकार की विशेष ऊर्जा एवं रुचि उत्पन्न होने लगती है। इसके लिए वह बहुत ही गम्भीरतापूर्वक प्रयास करने के लिए तत्पर हो जाता है।
कुण्डलिनी साधना अनेक प्रकार की कठिनाइयों से भरी पड़ी है। इसमें ईश्वर विश्वास की अनिवार्य आवश्यकता होती है। ईश्वर विश्वास के बल पर ही वह अपनी समस्त मनोकामनाओं एवं बाधाओं से जूझने को तैयार हो जाता है। इश्वर की शक्ति असीम-अनन्त है। कितनी भी बड़ी समस्या क्यों न हो वह अवश्य हल हो जाती है, कहा भी है- भगवान् के घर देर है, अंधेर नहीं
उपरोक्त वर्णित 24 प्रश्नों से व्यक्ति को स्वयं अपनी पात्राता की परीक्षा करनी चाहिए। यदि कहीं पात्राता में कमी नजर आए तो पहले उसे सुधरने का प्रयास करना चाहिए। पुरातन काल में संन्यास दीक्षा देने के बाद ही कुण्डलिनी जागरण का क्रम बनाया जाता था। अब संन्यास दीक्षा लेने की तो आवश्यकता नहीं है, क्योंकि चारों ओर का वातावरण काफी अधिक अपवित्र हो चुका है। जिन संस्थाओं ने संन्यासी अधिक बनाने का प्रयास किया, उन्हीं संस्थाओं में वेश्यावृत्ति पनपनी प्रारम्भ हो गयी। आज के समय में लम्बे समय तक वासनाओं से जूझ पाना सम्भव नहीं है। अत: प्रत्येक कुण्डलिनी साधक को विवाह करना लाभप्रद है। विश्व ब्रह्माण्डीय ऊर्जा (Would Cosmic Energy) में इस प्रकार का परिवर्तन किया गया है कि कुण्डलिनी साधना सरल हो जाए। यह कार्य दो महामानवों (महर्षि अरविन्द व महर्षि श्रीराम आचार्य) ने अपने तपोबल पर किया है। कहते हैं महात्मा भागीरथ ने अपने कठोर तप (प्रयासों) से माँ गंगा को धरती पर उतार कर राजा सगर के वंशजों का उद्धार किया था। इसी प्रकार इन दोनों महामानवों ने अपने कठोर तप से कुण्डलिनी शक्ति को जन-जन तक सुलभ कराने का महा प्रयास किया है। इससे भारत एवं सम्पूर्ण विश्व का उद्धार हो सकेगा। धरती माँ के बच्चे आज अत्यधिक पीड़ित अवस्था से गुजर रहे हैं। आने वाले समय में भगवती कुण्डलिनी के कृपा पात्र 24000 साधक क्षेत्र में उतरगे। जो अपने ज्ञान, तप, संयम, सेवा दिव्यगुणों से भारत व पूरे विश्व को एक नयी राह दिखाने का कार्य करेंगे। ये अधिकांश विवाहित होंगे। व्यवस्था कुछ इस प्रकार की बनी हुई है कि अविवाहित व्यक्ति कुण्डलिनी साधना प्रारम्भ तो कर सकेगा, परन्तु उसका पूर्णता तक पहुँच पाना कठिन हो जाएगा। अत: कुण्डलिनी  साधना को पूर्ण करने के लिए विवहित जीवन ही हितकर होगा।
कुण्डलिनी साधना की कठिनाइयां :  कुण्डलिनी साधना में तीन प्रकार के असन्तुलन उत्पन्न हो सकते हैं -
1. वासनात्मक असन्तुलन (Sexual Disturbances):
यह मूलाधर के आस-पास के चक्रों-उपचक्रों का असन्तुलन है। इसमें कई बार साधक की कामेच्छा (Sex Desire) बहुत अधिक बढ़ जाती है। यह यदि लम्बे समय तक बढ़ी रहे तो शारीरिक व मानसिक रूप से साधक को खोखला कर देती है। अत: संयम पूर्वक वैवाहिक जीवन बिताना चाहिए, अन्यथा उसके दुष्परिणाम भोगने पड़ सकते हैं।
वासना नियन्त्रित रहे इसके लिए यह आवश्यक है कि आज्ञा चक्र व उसके आस-पास के उपचक्र जागृत (Activate) हों, जिससे ऊर्जा का प्रवाह ऊपर की ओर रहे। यदि नाली रुक जाएगी तो पानी एक स्थान पर एकत्र होकर दबाव बनाएगा। इसी प्रकार यदि ऊर्जा ऊपर की ओर नहीं बढ़ेगी तो मूलाधर पर अनावश्यक दबाव बनेगा यह वासना को बढ़ा सकती है।
वासना को नियन्त्रित करने का दूसरा उपाय है कि मन को अश्लील बातों, अश्लील वातावरण से अधिक से अधिक दूर रखें तथा लोक-कल्याण, आत्म-कल्याण के संकल्पों में अपने आपको व्यस्त रखें। यदि व्यक्ति खाली रहा, पुरुषार्थ में कमी आयी तो वासना उसको घेरना प्रारम्भ कर देगी। अत: वासनात्मक असन्तुलन से बचने के लिए पुरुषार्थी अर्थात् तपस्वी होना बहुत आवश्यक है।
कई बार मूलाधर में ऊर्जा का असन्तुलन कमर में दर्द उत्पन्न कर देता है। यह दर्द थोड़ा इधर -उधर खिसकता (Shift) रहता है।
2. भावनात्मक असन्तुलन (Emotional Disturbances):
यह अनाहत के आस-पास के चक्रों, उपचक्रों का असन्तुलन है। इसमें कई बार भय, लोभ, मोह, ईर्ष्या, द्वेष आदि बढ़ जाता है। इनकी ग्रन्थियां (Complexities) बन जाती हैं जिनसे बाहर निकलना असम्भव सा प्रतीत होता है। अवसाद (Depression) व आवेश (Excitement) भी इसी क्षेत्र की विकृति के परिणामस्वरूप उत्पन्न होता है। शरीर पर इसका कुप्रभाव बहुत अधिक पड़ता है। हृदयाघात (Heart attack) तंत्रिका तन्त्र का असन्तुलन (Neural Disorders) नींद न आना (Insominia) आदि तरह-तरह के रोगों का शिकार व्यक्ति होने लगता है। अचानक सोते-सोते हृदयाघात से मृत्यु हो जाना भी अनाहत के असन्तुलन का ही परिणाम है। हाथ-पैरों में कम्पन, सांस फूलना, हृदय की धडकन कभी भी बढ़ जाना, गर्दन में अकड़न भी इसी के कारण होता है। कई बार व्यक्ति दुबला-पतला होते हुए भी अपने हृदय को असन्तुलित अनुभव करता है। चिकित्सक के पास जाता है उसे कोई भी विकृति (Physical Deformity) नहीं पता चलती, परन्तु व्यक्ति अपनी हृदय की धडकन असामान्य सी (Unrhythmice) अनुभव करता रहता है। बांयी भुजा में भी इससे खिंचाव तनाव आ जाता है। कई बार व्यक्ति के अन्दर मृत्यु के प्रति भय विकसित हो जाता है। कई बार व्यक्ति के मन में कुछ गलत घटित होने की आशंका हर समय बनी रहती है।
कभी-कभी व्यक्ति को किसी दूसरे लिंग (Opposite Sex) से बहुत अधिक प्रेम हो जाता है, हो सकता है इसमें वासना का भाव न हो या बहुत कम हो। कभी-कभी किसी और से (जैसे दादा का पोते से, किसी मित्र आदि से) बहुत आकर्षण अथवा मोह उत्पन्न हो जाता है और हर पल उसी की चिन्ता सताती रहती है।
इन सब असन्तुलन से बचने के उपाय हैं। व्यक्ति अधिक समय गायत्री मन्त्र का जप (अथवा जिस पर उसकी श्रद्धा हो) करें। गायत्री मन्त्र अनाहत पर ऊर्जा को सन्तुलित करने की रामबाण औषधि है। प्रयास करें èयान आज्ञा चक्र पर रहे, जैसे-जैसे आज्ञा चक्र जागृत (Activate) होने लगेगा वैसे-वैसे भावनात्मक असन्तुलन अपने आप कम होता जाएगा।
भावनात्मक असन्तुलन की ग्रन्थि जब एक बार किसी के भीतर बन जाती है तो एक प्रकार का दलदल भीतर बन जाता है। स्वयं व्यक्ति उससे निकलने का कितना भी प्रयास करे, नहीं निकल पाता। अत: उस प्रकार के नकारात्मक विचारों से न तो परेशान हों न ही डरें, भागें नही, न उनसे लड़ने की सोचें, न उनमें उलझें। बस आज्ञा चक्र पर èयान करें। आज्ञा चक्र का जागरण स्वत: ऐसी ग्रन्थियों को समाप्त करता चला जाता है।
ऐसे व्यक्ति को एकान्त से बचना चाहिए। खाली बैठने से बचना चाहिए। स्वार्थपरक कार्यों व जीवनचर्या को त्यागना चाहिए। जो व्यक्ति अधिक स्वार्थमय चिन्तन करता है उसमें इस प्रकार की समस्या होने की सम्भावना बढ़ जाती है। भय, मोह, लोभ, ईर्ष्या ऋणात्मक ऊर्जा ये सभी स्वार्थ के ही बच्चे हैं जहां स्वार्थ आता है वहां इसके बच्चों की टोली अवश्य आ बैठती है। अत: लोक-कल्याण करने वाले किसी मिशन के साथ उसको तुरन्त जुड़कर अधिकांश समय परमार्थ परक कार्यों में ही लगाना चाहिए। सृजनात्मक वातावरण ही इस प्रकार के व्यक्ति की समस्याओं का हल है।
इस प्रकार आज्ञा चक्र व निष्काम कर्म ही इसके समाधन हैं। निष्काम कर्म का आजकल लोग गलत अर्थ निकालते हैं। लोग सोचते हैं अपने व्यवसाय में जुटे रहें उसे ईमानदारी से करें,फल की चिन्ता न करें यह निष्काम कर्म है, परन्तु ऐसा सोचना गलत है। यदि किसी व्यक्ति के पास परिवार के पालन-पोषण के लिए पर्याप्त धन है फिर भी वह धनोपार्जन में लगा है यह निष्काम कर्म नहीं है। निष्काम कर्म वह है जिसकी समाज को, राष्ट्र को सबसे अधिक आवश्यकता है जैसे आज चरित्र-निर्माण की राष्ट्र को सबसे अधिक आवश्यकता है। चरित्र-निर्माण से सम्बंधित कार्य अपने हाथ में लें लेने चाहिए व धनोपार्जन का कार्य तुरन्त त्याग देना चाहिए।
लैला-मजनू का दीवानापन भी अनाहत की विकृति है। व्यक्तिगत प्रेम का शमन (Sublimation)] विराट के प्रेम (Universal Love) में होना चाहिए। जब भी व्यक्तिगत प्रेम आएगा मोह आएगा, आशाएं, आकांक्षाएं, अपेक्षाएं चुपके-चुपके जन्म लेने लग जाएंगी और व्यक्ति बंधता, जकड़ता चला जाएगा इसलिए तुलसीदास जी को कहना पड़ा -
‘‘मोह सकल बंधन कर मूला। इनसे उपजत बहुविधि सूला।।’’
        ईश्वर प्रेम, मानव मात्रा के प्रति प्रेम, सम्पूर्ण जीवधरियों के प्रति निस्वार्थ प्रेम का विकास करें। एक व्यक्ति एक कुत्ता पालकर उससे प्रेम करता है, यह स्वार्थपरक प्रेम है। क्यों नहीं गली के सभी कुत्तों से प्रेम करते। जब व्यक्ति जीवन में किसी वस्तु या व्यक्ति विशेष को अधिक प्रधानता देने लगता है तभी मोह उत्पन्न होने लगता है। इस अवस्था में पुन: सन्तुलन की आवश्यकता है। नि:स्वार्थ प्रेम का यह अर्थ भी नहीं लगाया जाना चाहिए कि आप अपनी सारी पूंजी, कमाई ही गरीबों में, भूखों में बांट दें। पहले आपके बाल-बच्चे हैं। वह उत्तरदायित्व भगवान् ने आपको दिया है प्रथम कर्त्तव्य है कि उनकी जीवन निर्वाह की व्यवस्था बनायी जाए। जब उसकी समुचित व्यवस्था बन जाए तो समाज की सोचें। कुण्डलिनी साधक में बहुत ऊर्जा होती है अपने बच्चों एवं परिवार के लिए जीवन निर्वाह के साधन जुटाना उसके लिए बहुत छोटा कार्य है। उसकी दृष्टि बहुत उदार होती है, पूरी वसुधा को वह अपना कुटुम्ब मानता है। आइए थोड़ा प्रैक्टिकल सोचते हैं। बाहर दृष्टि दौडाएं तो बहुत से लाचार, बीमार, भूखे-नंगे बच्चे नजर आते हैं। क्या इन सबको रोटियां, कपड़े, मकान बांटना हमारा धर्म है? क्या यह इस समस्या का समाधन है? मान लीजिए आपके घर के बाहर दस भूखे बच्चे हैं आपने उन्हें रोटी दी, कपड़े दिए, रहने की व्यवस्था की। कल दस और आ जाएंगे उनकी भी व्यवस्था की, यह क्रम बढ़ता चला जाएगा क्योंकि समाज का एक भूखा-नंगा बड़ा वर्ग इस प्रकार का हो गया है जिनका कार्य सिपर्फ बच्चे पैदा कर सड़क पर छोड़ देना है। इस वर्ग को नियन्त्रित करना परम आवश्यक है। इनको समझाया जाना चाहिए। यदि कोई व्यक्ति किसी बच्चे का पालन-पोषण नहीं कर सकता तो बच्चा पैदा करना पाप है, बहुत बड़ा सामाजिक अपराध है। परन्तु न तो कोई धर्म का ठेकेदार इसे सामाजिक अपराध की संज्ञा देता है, न ही कोई सरकार इसे सामाजिक अपराध घोषित करने का साहस कर पायी है। समाज सेवी संगठनों को इस ओर प्रयास करने का साहस जुटाना चाहिये। नि:सन्देह व्सुधेव कुटुम्बकम की भावना का विकास किया जाना चाहिए, परन्तु साथ-साथ प्रयास विवेक सम्मत किए जाने चाहिए। समस्याओं की जड़ तक जा कर उन्हें दूर करना चाहिए। कुण्डलिनी साधक न तो परिवार के मोहपाश में ही बंधकर, सिमट कर रह जाए, न ही इस प्रकार का दानी बने जिससे समाज का कोई भला न हो पाए, वरन् एक सन्तुलित रीति-नीति अपनायी जानी चाहिए।
अनाहत चक्र की विकृति को दूर करने के लिए निम्न प्रयास किए जाने चाहिएंµ
1.    आज्ञा चक्र पर èयान कर उसको जागृत किया जाए।
2.    मन्त्रा-जप विशेष रूप से गायत्री का जप करना चाहिए।
3.    राष्ट्र-प्रेम, ईश्वर-प्रेम, विराट-प्रेम (Universal Love) का विकास किया जाए।
4.    ऋणात्मक विचारों से नहीं उलझना चाहिए।
5.    वीर भाव का विकास करना चाहिए
6.    स्वार्थ से परमार्थ की ओर मुड़ते जाना चाहिए।
7.    लोक कल्याण के लिए अधिकाधिक समर्पित होना चाहिए।
8.    जीवन को अधिकाधिक व्यस्त रखना चाहिए, एकान्त में कम रहना चाहिए।
9.    क्षमाशीलता का विकास करना चाहिए।
10.   कार्यों को तीव्र गति से सम्पादित करना चाहिए। सुस्ती से, आराम से काम नहीं करने चाहिएं।
11.   र्इश्वर पर विश्वास अधिक से अधिक जमाना चाहिए। जो ईश्वर की शरण में गया जिसने ईश्वर को अपने जीवन का समर्पण किया उसका अहित नहीं हो सकता, यह बात दृढ़ता से स्वीकार कर लेनी चाहिए।


(यह लेख पुस्तक 'सनातन धर्म का प्रसाद' से लिया गया है जो कि इस ब्लॉग के लेखक राजेश अग्रवाल जी द्वारा प्रकाशित की गई है। पुस्तक डाउनलोड की जा सकती है बिना किसी मुल्य के:-
http://vishwamitra-spiritualrevolution.blogspot.in/2013/02/blog-post.html
छपी पुस्तक मांगने की कीमत मात्र सॊ रूपए है, डाक द्वारा भेजी जाएगी)

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