Wednesday, December 24, 2014

न्यूरो मसकूलर डिजीसिस (Neuro Muscular Diseases & Solutions)

From my book "स्वस्थ भारत "
     आधुनिक जीवन शैली - जिसमें व्यक्ति आराम परक जीवन जीना चाहता है, सभी काम मशीनों के द्वारा करता है, खाओ पीओ और मौज करो की इच्छा रखता है, इस प्रकार के जटिल रोगों को जन्म दे रही हैं।
     लक्ष्णः
     1. हाथ पैरों में सुन्नपन्न (Numbness)  होना, सोते समय यदि हाथ अथवा पैर सोने लगे, सोते हुए हाथ थोड़ा दबते ही सुन्न होने लगते हैं, कई बार एक हाथ सुन्न होता है, दूसरे हाथ से उसको उठाकर करवट बदलनी पड़ती है।
     2. हाथों की पकड़ ढीली होना, अथवा पैरों से सीढ़ी चढ़ते हुए घुटने से नीचे के हिस्सों में खिचांव आना।
     3. गर्दन के आस-पास के हिस्सों में ताकत की कमी महसूस देना।
     4. गर्दन को आगे-पीछे, दाॅंयी-बाॅंयी ओर घुमाने में दर्द होना।
     5. शरीर के दाॅंये अथवा बाॅंये हिस्से में दर्द के वेग आना।
     6. याददाश्त का कम होते चले जाना।
     7. चलने का सन्तुलन बिगड़ना।
     8. हाथ-पैरों में कम्पन्न रहना।
     9. माॅंसपेशियों में ऐठन विशेषकर जाॅंघ (Thigh) व घुटनों के नीचे (Calf) में Muscle Cramp होना।
     10. शरीर में लेटते हुए साॅंय-साॅंय अथवा धक-धक की आवाज रहना।
     11. कोई भी कार्य करते हुए आत्मविश्वास का अभाव अथवा भय की उत्पत्ति होना। इनको (Psychoromatic Disease) भी कहा जाता है।
     12. अनावश्यक हृदय की धड़कन बढ़ी हुई रहना।    
     13. शरीर में सुईंया सी चुभती प्रतीत होना।
     14. शरीर के कभी किसी भाग में कभी किसी भाग में जैसे आॅंख, जबड़े, कान आदि में कच्चापन अथवा Paralytic Symptoms उत्पन्न होना।
     15. सर्दी अथवा गर्मी का शरीर पर अधिक असर होना अर्थात सहन करने में कठिनाई प्रतीत होना।
     16. एक बार यदि शरीर आराम की अवस्था में आ जाए तो कोई भी कार्य करने की इच्छा न होना अर्थात् उठने चलने में कष्ट प्रतीत होना।
     17. कार्य करते समय सामान्य रहकर उत्तेजना (Anxiety) चिड़चिड़ापन (Irritation) अथवा निराशा (Depression)  वाली स्थिति बने रहना।
     18. रात्रि में बैचेनी बने रहना, छः-सात घण्टे की पर्याप्त निद्रा न ले पाना।
     19. कार्य करते हुए शीघ्र ही थकान का अनुभव होना। पसीना अधिक आने की प्रवृत्ति होना।
     20. किसी भी अंग में फड़फड़ाहट होते रहना।
     21. मानसिक कार्य करते ही दिमाग पर एक प्रकार का बोझ प्रतीत होना, मानसिक क्षमता का हृास होना।
     22. रात को सोते समय पैरों में नस चढ़ना अर्थात् अचानक कुछ मिनटों के लिए तेज दर्द से आहत होना।
     23. शरीर गिरा गिरा सा रहना, मानसिक दृढ़ता का अभाव प्रतीत होना।
     24. शरीर में पैरों के तलवों में जलन रहना या हाथ-पैर ठण्डे रहना।


Neuromuscular disease

(1.) Nervousness- व्यक्ति अपने भीतर घबराहट, बैचेनी, बार-बार प्यास का अनुभव करता है| किसी interview को देने, अपरिचित व्यक्तियों से मिलने, भाषण देने आदि में थोडा ह्रदय की धड़कन बढती हा नींद ठीक प्रकार से नहीं आती व रक्तचाप असामन्य रहता है| इसके लिए व्यक्ति के ह्रदय व मस्तिष्क को बल देने वाले पोषक पदार्थ (nervine tonic) का सेवन करना चाहिए तथा अपने भीतर अद्यात्मिक दृष्टिकोण का विकास करना चाहिए| सम भाव, समर्पण का विकास कर व्यक्तिगत अंह से बचना चाहिए| उदाहरण के लिए यदि व्यक्ति मंच पर भाषण देता है तो यह भाव न लाए कि वह कितना अच्छा बोल सकता है अपितु इस भाव से प्रवचन करे कि भगवान उसके माध्यम से बच्चो को क्या संदेश देना चाहते है? भविष्य के प्रति भय, महत्वाकांक्षा इत्यादि व्यक्ति में यह रोग पैदा करते है|

(2.) Neuralgia - इसमें व्यक्ति को शारीर के किसी भाग में तेज अथवा हलके दर्द का अनुभव होता है|जैसे जब चेहरे का तान्त्रिक तन्त्र (Facial Nervous) रुग्ण हो जाता है तो इस रोग को triglminal neuralgia कहते है| इसमें व्यक्ति के चेहरे में किसी एक और अथवा पुरे चेहरे जैसे जबड़े, बाल, आंखे के आस-पास एल प्रकार का खिंचाव महसूस होता है| कुछ मनोवैज्ञानिक को ने पाया कि यह रोग उनको अधिक होता है जो दुसरो की ख़ुशी से परेशान होते है| इस रोग का व्यक्ति यदि हसना भी चाहता है तो भी पीड़ा से कराह उड़ता है| अर्थात प्रकृति दुसरो की ख़ुशी छिनने वालो की ख़ुशी छिन्न लेती है| अंग्रेजी चिकित्सक इसको Nervous व muscular को relax करने वाली दवाएं जैसे Pregabalin, Migorill, Gabapentin इत्यादि देते है|

(3.) Parkinson(कम्पवात)- इसमें व्यक्ति के हाथ पैरों में कम्पन होता है| जब व्यक्ति आराम करता है तो हाथ पैर हिलाने लगता है| जब काम में लग जाता है तब ऐसी कठिनाई कम आती है| इसके L-dopa दिया जाता है| कृत्रिम विधि से तैयार किया हुआ यह chennal कम ही लोगो के शरीर स्वीकार करता है| आयुर्वैदिक जड़ी कोंच के बीजों (कपिकच्छु) में यह रसायन मिलता है| अंत: यह औषधि इस रोग में लाभकारी है| इसके लिए कोंच के बीजों को गर्म पानी में मंद आंच पर थोड़ी देर पकायें फिर छिलका उतार कर प्रति व्यक्ति 5 से 10 बीजों को दूध में खीर बना ले| साथ में दलिया अथवा अंकुरित गेंहू भी पकाया जा सकता है| खीर में थोडा गाय का घी अवश्य मिलाएं अन्यथा चूर्ण की अवस्था अथवा कोंच पाक भी लाभदायक है| यह समस्त तान्त्रिक तन्त्र व मासपेशियों के लिए बलदायक है|

(4.) Alzheimer- इसमें व्यक्ति की यादगार कम होती चली जाती है|

न्यूरो मस्कुलर रोगों की चपेट में बहुत बड़े-बड़े व्यक्ति भी आए है| इस युग के जाने-माने भौतिक शास्त्र के वैज्ञानिक प्रो. स्टीफन हाकिन्स इसी से सम्बन्धित एक भयानक रोग से युवावस्था में ही पीड़ित हो गए व उनका सारा शरीर लकवाग्रस्त हो गया था| परन्तु उन्होंने हिम्मत नहीं हारी व कठोर संघर्ष के द्वारा अपनी शोधों (Researches) को जारी रखा आज भी वो 65 वर्ष की उम्र में अपनी जीवन रक्षा के साथ-साथ विज्ञान के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान कर रहे है| उनकी उपलब्धियों के आधार पर उनको न्यूटन व आइंस्टाइन जैसे महान वैज्ञानिकों की क्ष्रेणी में माना जाता है|

इसी प्रकार कोटा राजस्थान के सर्वप्रथम IIT की कोचिंग का प्रारम्भ करने वाले बंसल साहब इस रोग से इतने लाचार है कि अपने शरीर की मख्खी भी उड़ाने में असमर्थ है|

Saturday, December 20, 2014

व्यंग्य, परिहास एवं असहयोग वृत्ति से बचें

भारतीय समाज में एक बहुत खराब वृत्ति उपज रखी है कि लोग एक-दूसरे का मजाक, परिहास व छींटाकशी में बहुत समय खराब करते हैं। हमारा गायत्री परिवार भी इसकी चपेट में आने से बचा नहीं है। अनेक स्थानों पर कई-कई समूह व मण्डल बने हैं जो एक-दूसरे को नीचा दिखाने के चक्कर में बहुत समय, साधन नष्ट करते हैं। यदि एक बाप के चार बेटे उसके कार्य में मिलजुल कर सहयोग न करें, अपने अहं को ऊॅंचा कर लड़ाई झगड़ा करें तो उस बाप को कितना कष्ट होगा कि क्या इसी दिन के लिए इनको पाल पोस कर बड़ा किया गया था?
गायत्री परिवार महाकाल का लीला सहचर, सहयोगी है उसका उत्तरदायित्व भी इस हिसाब से बहुत अधिक बनता है। उन्हें जनसामान्य से अधिक परिष्ड्डत, विवेकशील, सहनशील व सद्गुणी माना जा रहा है फिर उनमें ऐसी वृत्तियाॅं क्यों पनपने लगती हैं? पुराणों में इस सन्दर्भ में एक सुन्दर कथा आती है। 
एक बार ब्रह्मा जी के चारों मानस पुत्र सनक, सनन्दन, सनतकुमार व सनातन भी हरि दर्शनों की अभिलाषा लेकर वैकुण्ठ लोक पघारे। ये चारों ब्रह्म)षियों के समान उच्च कोटि के ज्ञानी थे परन्तु इन्होंने एक बार भगवान से यह वरदान माॅंगा कि उनकी उम्र सदा पाॅंच वर्ष की बनी रहे जिससे उनमें कोई विकार कभी न पनपें। इस कारण ये चारों बालकों के समान सुकुमार दिखते थे। भगवान विष्णु के द्वारपाल जय एवं विजय ने इन बालकों का परिहास किया कि श्री हरि के दर्शन तो बड़े-बड़े योगी, तपस्वियों, ज्ञानियों को दुर्लभ हैं तुम तो अभी बालक हो। ये चारों कुमार जय-विजय के अभद्र व्यवहार को सहन करते हुए उनसे भगवान के दर्शनों के लिए निवेदन करते रहे। जय-विजय अपने अहं के मद में उनके ब्रह्मतेज को पहचान न सके और उन पर अपने दंड से प्रहार कर दिया और बोले - ”मूर्ख बालकों श्री हरि तुम जैसे बालकों से कभी नहीं मिलेंगे। तुम सब यहाॅं से भागो अन्यथा तुम पर बहुत मार पड़ेगी।“
उनके इस अभद्र व्यवहार से कुपित होकर चारों ब्रह्मकुमारों ने जय-विजय को कहा-”भगवान श्री हरि का सान्निधय भी तुम्हें विवेक व विनम्रता न दे सका। यहाॅं रहकर भी तुम तमोगुण से घिरे हो। इसलिए हमारा शाप है कि तुम तमोगुण प्रधान राक्षस हो जाओ।“
ब्रह्मकुमारों के इस शाप से जय-विजय बहुत भयभीत हो गए व श्रीहरि को पुकारने लगे परन्तु अब पछिताए क्या होत है जब चिडि़या चुग गई खेत। जय और विजय धरती पर जाकर लंका में रावण व कुम्भकरण बने।
”होहु निसाचर जाइ तुम्ह कपटी पापी दोउ।
हॅंसेहु हमहि से लेहु फल बहुरि हॅंसेहु मुनि कोउû“
अर्थात्- तुम दोनों कपटी-पापी राक्षस होकर हमारी हॅंसी उड़ाने का फल प्राप्त करो।
निवेदन यही किया जा रहा है कि गायत्री परिवार के रूप् में हमें जो स्थान, पद, प्रतिष्ठा प्राप्त हुई है उससे हम किसी दूसरे का मजाक न बनाएॅं, दूसरों को नीचा दिखाने का प्रयास न करें अन्यथा हम पर गुरुद्रोह का पाप लगेगा जिसके कुफल से हमारी रक्षा कोई भी नहीं कर पाएगा।
बालरूप में गुरुदेव के बच्चे सीनियर कार्यकत्ताओं से प्यार व सहयोग की आशा करते हैं व सीनियर लोग उनकी प्रतिभाओं को न पहचानकर उनकी उपेक्षा करते हैं तो उन्हें बड़ा कष्ट होता है। ऐसी व्यथा हमसे अनेक नए युवा कार्यकत्ताओं ने कही है जिसे सुनकर बहुत ही दुःख होता है।
कितनी संकीर्ण मानसिकता से लोग बात करते हैं कि बाहर के व्यक्त् िकी लिखी किताबें हम नहीं पढ़ेंगे, हम उसमें सहयोग नहीं करेंगे ये हमारे मिशन की नहीं हैं। यह कोई ठीक आधार नहीं है। आप पुस्तक को 100 विद्वान लोगों को पढ़ने को दीजिए व उनसे मिमकइंबा लें। यदि उनमें से 75ø लोग भी प्रशंसा करें तो लेखक को कितने अच्छे अंक मिले यह सोंचे। यदि कुछ अच्छा लिखा गया है, छपा है तो किसका है, किसने लिखाया है - गुरुसत्ता ने, देवसत्ताओं ने। क्योंकि व्यक्ति में इतनी सामथ्र्य नहीं कि कुछ उच्च कोटि का लिख सके। फिर क्यों अपने दिल इतने छोटे कर लेते हैं भाई, हमारी समझ में यह नहीं आ पाता। हृदय छोटा करने वालों का अनाहत चक्र खराब ;क्पेजनतइद्ध हो जाता है व उनको हृदय रोग व सर्वाइकल जैसे रोगों की सम्भावना बढ़ जाती है अतः यह उनके स्वास्थ्य के लिए भी अच्छा नहीं है। इसके विपरीत प्रभु से कामना करें हमारे मिशन में, हमारे भारत में हजारों श्रेष्ठ लेखक, हजारों श्रेष्ठ वक्ता, हजारों तपस्वी उत्पन्न हों जिससे युग निर्माण का कार्य बहुत तेजी से आगे बढ़ सके।
हमें व्यक्तिवाद, परिवारवाद, जातिवाद, क्षेत्रवाद, मिशनवाद की दीवारें तोड़नी है तभी तो हम एकता, समता, शुचिता का साम्राज्य ला पाएॅंगे। तोते की तरह बोलते अर्थात् उपदेश तो बढि़या-बढि़या करते हैं परन्तु दिलों में बहुत ऊॅंच-नीच भेदभाव पाल रखे हैं तो कैसे हमारा उ(ार हो पाएगा? समाज पर जितना प्रभाव हमारे उपदेशों का पड़ता है उससे अधिक हमारी मानसिकता व हमारे वलय ;।नतंद्ध का पड़ता है यह बहुत बड़ा वैज्ञानिक सत्य है। यदि हम अपनी मानसिकता को ठीक नहीं कर पाएॅंगे तो व्यर्थ में उपदेशों का कोई लाभ नहीं होगा। युग निर्माण को सार्थक व प्रभावी दिशा देने के लिए हमें कठोर आत्मचिन्तन की आवश्यकता है। जो लोग इस मिशन के वास्तव में हितैषी हैं उन्हें एक मंच पर लाकर अग्रिम पंक्ति में खड़ा करने की आवश्यकता है जिससे यह तो पता चले कि असली घी कौन सा है। यदि नकली अधिक मिल जाएगा तो हमें नुक्सान करने लगेगा। हमारे कार्यक्रम, हमारी योजनाएॅं कागजों में तो चलेगी परन्तु यथार्थ में फ्लाॅप शो बनकर रह जाएॅंगी।
अपने ही अपनों की टाॅंग खींचने की केकड़ा प्रवृत्ति ने इस देश का कितना विनाश किया यह इतिहास गवाह है। यदि यह प्रवृत्ति भारत में न रही होती तो मुस्लिम व अंग्रेजों का दमन चक्र हमें न सहना पड़ता। परन्तु आज भी यह प्रवृत्ति हमारे खून में फेली हुई है। युग निर्माण के कार्य में जो विलम्ब हो रहा है उसके लिए उत्तरदायी अनेक कारणों में से एक कारण इस प्रवृत्ति का हमारे गायत्री परिवार में पाया जाना है। बाहर के लेखकों द्वारा लिखी हुई अच्छी पुस्तकों का हम प्रचार-प्रसार कर सकते हैं परन्तु अपने मिशन के अच्छे लेखकों को मान्यता नहीं दे सकते या फिर सच्चाई से डरते हैं जो पीठ पीछे बुराइयाॅं करते फिरते हैं।
जब प्रोफेशनल काॅलेजों में हमारे युवा लोग हमारी संस्ड्डति व देवी-देवताओं का मजाक बनाते हैं तो मुझे बड़ा दुःख हुआ करता है। इतना ही दुःख मुझे तब भी होता है जब हमारे कुछ परिजन इन पुस्तकों को दुखकर नाक-मुॅंह सिकोड़ने लगते हैं। अच्छा होगा कि हम सभी अपनी घटिया मानसिकता का त्याग कर युग निर्माण के कार्य में क्यों विलम्ब हो रहा है इस पर व्यापक विचार विमर्श करें। यदि हमारी सेना में ही आन्तरिक कलह उत्पन्न होता रहेगा तो हम कैसे आसुरी प्रवृत्तियों के विरू( एकजुट हो पाएॅंगे।
पूज्य गुरुदेव का संकल्प-स्वप्न था कि गायत्री परिवार समाज में एक आदर्श बनकर उभरे, एक दीपक की तरह समाज को रोशन करें। अर्थात् इसके परिजन अधिक स्वस्थ हों, अधिक विवेकशील हों, एक-दूसरे के सहयोगी हों, अधिक उदार हों जिससे समाज प्रेरणा ले सके। गिनती बढ़ाने का राजनैतिक लाभ या अहंपरक लाभ तो मिल सकता है कि हम पाॅंच करोड़ हैं। परन्तु समाज के लिए यदि प्रेरणा बनना है तो 24 लाख ही बहुत हैं। पाॅंच करोड़ हैं परन्तु बिखरे पड़े हैं, दुःखी हैं, लड़ झगड़ रहे हैं यह अच्छा है अथवा 24 लाख हैं संगठित हैं, स्वस्थ हैं, समृ( हैं, सुखी हैं, सि(ान्तों से समझौता नहीं करते, खर्चीली शादियों नहीं करते यह अच्छा है। मुझे लगता है कि व्यापक आत्म मन्थन करके हम अपने को समर्थ बनाना है न कि अधिक लोगों को गायत्री परिवार में घुसेड़ने का प्रयास करना है। ये पक्तियाॅं लिखते हुए मुझे अपने पुराने दिनों की याद ताजा हो जाती है जब मैं लोगों के पीछे तब तक पड़ा रहता था जब तक वह मेरे साथ शान्तिकुॅंज न हो आए। परन्तु आज मेरा मन बदल चुका है व्यक्ति आराम से जुड़े, सोच-समझ कर जुड़े व )षि परम्परा को जीवन में धारण करने के उद्देश्य से जुड़े। हाॅं जी साल में एक दो बार कार्यक्रम-हवन में आ गए, मासिक सौ-दो सौ रूपया चन्दा दे दिया हो गए गायत्री परिवार के सदस्य। जब लड़के का विवाह हुआ तो दहेज, बहुत खर्चीली शादी की, लक्सरी जीवन जी रहे हैं। रात दिन पैसा कमाने की मशीन बने हुए हैं ऐसे व्यक्ति जुड़ते रहें व गायत्री परिवार की संख्या बढ़ती रहे तो कोई ज्यादा लाभ नहीं। )षियों का अनुशासन मानने के लिए कौन तैयार है उच्चस्तरीय जीवन कौन जीना चाहता है मुख्य बिन्दु यह है। इस प्रकार का वर्गीकरण करना आवश्यक है तभी हम युग-सैनिकों की सही गिनती कर पाएॅंगे, अन्यथा गुड़ गोबर मिला रहेगा व काखाॅं गोल-गोल घूमता रहेगा, एवं युग निर्माण का समय सन् 2000, फिर सन् 2011 फिर 2024 आगे खिसकता रहेगा। समाज को दिशा-निर्देश देने का जो कार्य हमें सौंपा गया है वह हमारे आचरण से पूर्ण होना है न कि हमारे प्रचार अभियान से अथवा लच्छेदार भाषणों से। अतः भविष्य की रूपरेखा हम बहुत सोच समझकर एवं व्यापक विचार विमर्श के आधार पर ही तैयार करें। इसीमें हम सबका हित है।

अपनों से अपनी बात

आत्मीय स्वजनों एक घटना से अपनी बात का प्रारम्भ कर रहा हूॅं। कुछ दिनों पहले मैंने अपने घर के निर्माण हेतु नींव की खुदाई करवाई। अचानक शीत )तु की वर्षा प्रारम्भ हो गई। पानी सड़क से बहकर नींव की ओर जाने लगा। हम मिट्टी डालकर उसको रोकने का प्रयास करने लगे। अगले दिन हल्की बूंदाबांदी हो रही थी। मैंने उस परिस्थिति का निरीक्षण किया तो मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि मात्र हल्की वर्षा से पानी नहीं भर रहा बल्कि पानी का रिसाव कहीं ओर से भी हो रहा है। गहराई से जाॅंचने पर पता चला कि सड़क के किनारे एक पाइप के जोड़ से हल्का रिसाव हो रहा है जब वर्षा में मिट्टी नरम हुई तो वह भी आकर ऊपर रिसने लगा। उसको ठीक करने पर ही पानी नींव की ओर जाना बन्द हुआ
मानव जीवन में भी दो सतह हैं एक ऊपरी और एक भीतरी। जब ऊपरी सतह कमजोर होती है तो भीतरी सतह का रिसाव उसको प्रभावित करने लगता है। यह रिसाव यदि दूषित है अर्थात् विकारपूर्ण है तो हमारा स्वास्थ्य व व्यक्तित्व दोनों ही गड़बड़ा जाते हैं। व्यक्ति समस्या का समाधान मात्र ऊपरी सतह पर ढूॅंढता है व इस प्रकार के उलाहने देता है। मैं तो पूरा परहेज करता हूॅं फिर भी रोग पीछा नहीं छोड़ता परन्तु अमुक व्यक्ति अण्डा, मीट, शराब सब कुछ खा पी रहा है फिर भी स्वस्थ रहता है। कारण उसकी भीतरी परत अधिक मजबूत है जो ऊपर के दूषित रिसाव को सहन कर पा रही है।
एक बार मेरा एक विद्यार्थी पेट के रोगों के कारण दुःखी रहता था अपनी मित्र मण्डली के साथ बैठा हुआ था। यार दोस्तों ने उसको समझाया कि वह इतना परहेज करता है इसलिए दुःखी रहता है उनकी तरह थोड़ा-थोड़ा दारु पीना शुरू करें तो वह भी हट्टा कट्टा हो जाएगा। उनकी सलाह मान उसने थोड़ा पीना प्रारम्भ किया। प्रारम्भ में कुछ राहत मिली तो और पीने लगा। धीरे-धीरे उसका लीवर व नर्वस सिस्टम कमजोर होता गया। एक वर्ष बाद वह बड़ी जटिल रोगों की अवस्था में मेरे पास आया व जीवन रक्षा के लिए प्रार्थना करने लगा। बड़ी कठिनाई से वर्षों माथा पच्ची के बाद वह पुनः ठीक हो पाया। मैंने उसे कहा कि अभी वह युवा था जिस कारण बच गया यदि उम्र अधिक होती तो बचाना सम्भव न होता अतः भविष्य में ऐसी गलती न करे।
यह बड़ी दुःखद स्थिति है आज बड़ी सॅंख्या में युवा वासनाओं के गड्ढों में जाने अनजाने कूद रहे हैं। जिनके हाथ-पैर मजबूत हैं वो तो सह जाते हैं परन्तु जो कमजोर हैं वो हाथ-पैर तुड़वा बैठते हैं। अतः समाज की देखा-देखी गलत परम्पराओं के प्रचलन को न अपनाएॅं अपितु सदा )षि परम्परा का अनुसरण कर ‘स्वस्थ भारत’ के निर्माण में सहयोग करें।
मित्रों व्यक्ति में पाॅंच प्रकार की परतें होती हैं
1. अन्नमय कोष
2. प्राणमय कोष
3. मनोमय कोष
4. विज्ञानमय कोष
5. आनन्दमय कोष
ये पाॅंचों परतें प्याज के छिलकों की तरह एक के भीतर एक गुॅंथी होती हैं। ये पाॅंचों आपस में इस प्रकार जुड़ी ;प्दजमतसपदामकद्ध हैं कि एक-दूसरे के सतत आदान-प्रदान पर निर्भर रहती हैं। यदि किसी भी परत में विकार आ गए तो उसका दूषित रिसाव दूसरी परतों को भी प्रभावित अवश्य करता है।
प्राचीन काल में )षि स्तर के व्यक्ति होते थे जो अपनी प्रज्ञा दृष्टि से यह पता लगा लेते थे कि व्यक्ति की किस परत में क्या समस्या है। उसी अनुसार रोग का निदान करते थे। आज के युग में ऐसे व्यक्ति दुर्लभ हैं। अतः स्वस्थ व सुखी रहने के लिए हमें इन पाॅंचों कोषों के स्तर पर विविध जानकारियाॅं रखना आवश्यक है। यह सब विशद् ज्ञान का एक समुद्र हैं जिसमें से एक लौटा पानी निकालने का प्रयास इस पुस्तक के किया गया है।
समय की विडम्बना यह है कि हमने अपनी )षि परम्परा को ही तहस-नहस कर डाला। हर जाग्रत आत्मा को उस परम्परा के पुनरूत्थान के लिए अपनी प्रतिभा का नियोजन किसी न किसी रूप् में अवश्य करना चाहिए। मात्र स्वार्थ, भोग, पद-प्रतिष्ठा, विलास का जीवन जीने वालों को काल, प्रड्डति व भगवान कोई भी क्षमा नहीं करेगा। यह एक चिर सत्य है। जब मोहल्ले में किसी घर में आग लगी हो तो उस आग को बुझाने की जगह जो व्यक्ति अपने घर की दीवार ऊॅंची कर रहा हो वह कितना बड़ा मूर्ख होगा। यही मूर्खता आज का सभ्य समाज कर रहा है। सोचता है कि अधिक से अधिक धन, वैभव बटोर लें तो बड़े-बड़े चिकित्सालयों में इलाज कराना सम्भव हो पाएगा। अपने स्वार्थ में अन्धे महानुभावों को यह नहीं दिख रहा यदि )षि परम्परा का पुनरूथान समय रहते नहीं हो पाया तो सब कुछ तहस-नहस हो जाएगा। जिस आने वाली पीढ़ी के लिए धन, वैभव, मान-सम्मान इकट्ठा किया जा रहा है वह अपने पूर्वजों की करतूतों पर उनके मुॅंह पर थूकेगी। अतः प्रत्येक प्रतिभावान समर्थ व्यक्ति ‘स्वस्थ भारत’ के निर्माण के लिए अपना योगदान निःस्वार्थ भाव से अवश्य प्रस्तुत करे।
हमारे ज्ञान-विज्ञान से विदेशी लोग बहुत लाभ उठा रहे हैं। उदाहरण के लिए धतुरा एक वनस्पति है जो शिव को प्रिय है। इसका अर्थ यह था कि धतूरे का उपयोग हम शिव अर्थात् कल्याणकारी कार्यों में ही करेंगे। आज होम्योपैथी में धतूरे से बेलाडोना नामक दवा का निर्माण होता है जो बच्चों के संक्रमण वाले रोगों व बड़ों के नर्वस सिस्टम की समस्याओं में बहुत ही उपयोगी सि( होती है। हमारा दुर्भाग्य है कि हम अपने पूर्वजों के अनमोल शोध कार्य के ‘स्वस्थ भारत’ के निर्माण के लिए जन जन तक नहीं पहुॅंचा पाए। जिस कारण स्वस्थ रहना ही आज के युग में एक विकट समस्या बनता चला जा रहा है।
)षियों की इस वेदना को महसूस कर ही इस पुस्तक का लेखन प्रारम्भ किया गया है। आशा है पाठकों के लिए लाभप्रद होगी व हमारे पाठक जन-जन, घर-घर तक पुस्तक पहुॅंचाने में हमारा सहयोग अवश्य करेंगे।
भारतीय समाज की स्थिति बड़ी भयावह हो चुकी है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र चारों वर्ग भ्रष्टाचार की लपेट में आकर अपने धर्म से च्युत हो गए हैं। ऐसे में व्यक्ति कैसे स्वस्थ व सुरक्षित रह सकता है? ब्राह्मण वर्ग जो त्याग व तप का जीवन जीता था, समाज को आदर्शों, सि(ान्तों पर चलने की प्रेरणा देता था, अपने लाभ के लिए समाज को ग्रह नक्षत्रों, शनि, पितृों, ज्योतिष, कर्मकाण्डों में उलझा कर रख दिया है। बड़े-बड़े आश्रमों, मन्दिरों को महत्त्वाकांक्षी लोगों ने हथिया रखा है जो मात्र ऊॅंचे-ऊॅंचे भवनों के निर्माण में जुटे रहते हैं जिससे उनकी प्रसि(ि हो सके। उस धन को यदि जन कल्याण में नियोजित किया गया होता तो समाज का कितना भला होता यह उन्हें कैसे समझ आए। स्वयं जीव भाव में जीने वाला व्यक्ति वेद, शास्त्रों व भगवद्गीता पर लच्छेदार प्रवचन करेगा तो जनता पर क्या प्रभाव पड़ेगा।
जब व्यक्ति जीवभाव में जीता है तो उसे शरीर और उससे जुड़े रिश्ते-नाते, परिवार प्रिय होते हैं। इस कारण जीवभाव में जीने वाला व्यक्ति परिवारवाद, जातिवाद, क्षेत्रवाद को बढ़ावा देता है। जब व्यक्त् िआत्मभाव में जीता है तो वह मात्र धर्म की स्ािापना के अनुसार सोचता है। शरीर व उससे जुड़े रिश्ते नातों को महत्त्व नहीं देता। महाभारत के प्रथम दिन अर्जुन जीव भाव में थे। अपने सामने अपने बन्धुओं, शिक्षकों व रिश्तेदारों को देख उनका मोह सताने लगा व धर्म की रक्षा के अपने कर्तव्य से बचकर भागने लगे। भगवान ड्डष्ण ने उनका जीव भाव नष्ट कर आत्म भाव जाग्रत कर दिया तो वो यु( के लिए तैयार हो गए। आज भगवद्गीता पर बड़े-बड़े सेमिनार, सम्मेलन होते हैं परन्तु कितने विद्वान आत्मभाव में जीते हैं। मात्र बढि़या-बढि़या प्रवचन, विवेचन कर अपना कर्तव्य पूर्ण मान लेते हैं। धर्म के लिए यु( स्तर का प्रयास करने का साहस, अपने प्राणों को दाॅंव पर लगाकर मानवीय मूल्यों की स्थापना, युग निर्माण के लिए अपनी आहुति, अपना आत्मदान करने का संकल्प करने वाले लोग कितने हैं। ऐसे व्यक्ति ही गीता के कर्मयोग पर चलने के लिए समाज को प्रेरित कर सकते हैं। शेर की खाल ओढ़े गीदड़ों की सच्चाई जब सामने आती है तब पता चलता है कि लोग धर्म, शास्त्रों व गीता को अपने स्वार्थों व महत्त्वांकाक्षाओं की पूर्ति का माध्यम बना रखे हैं। ये वही लोग हैं जो साधु वेश में संस्ड्डति रूपी सीता का हरण कर रहे हैं। अपनी ताकत के अभिमान में यह भूल जाते हैं कि रावण व कंस का क्या हाल हुआ था। रावण से अधिक शक्तिशाली तो ये नही हैं। इस बार धरती पर राम, ड्डष्ण, बु( का ही नहीं अपितु महा अवतार होने जा रहा है जो पिछले दो हजार वर्षों की गन्दगी को साफ कर ‘स्वच्छ भारत-स्वस्थ भारत’ ‘सशक्त भारत-विश्वामित्र भारत’ के संकल्प को पूर्ण करेगा। जिनके भीतर यह चेतना काम करती है वो अपने अन्दर एक तड़प, छटपटाहट, कुछ श्रेष्ठ करने की इच्छा महसूस करते हैं, चैन से सो भी नहीं पाते, उच्च व दिव्य भावों से भरे रहते हैं।
क्षत्रिय वर्ग के लोग जो ताकत व दम-खम रखते हैं वो उसका उपयोग भोग विलास अथवा अत्याचार में कर रहे हैं। अन्याय, अनीति, अधर्म को देख कितने लोगों का खून खोलता है। क्या यह वही भूमि है जहाॅं लोग अपने प्राणों पर खेलकर धर्म, इन्सानियत की रक्षा करते थे! वैश्य वर्ग के लोग अपने तुच्छ लाभों के लिए हर जगह मिलावट किए दे रहे हैं। शूद्र वर्ग जो तीनों वर्णों की सेवा करता था, नशेखोरी व गलत आदतों में पड़कर जीवन बर्बाद कर रहा है। कहने का तात्पर्य यह है कि समाज की व्यवस्था ही चैपट हो चुकी है। ऐसी कठिन परिस्थिति में हम एक सुन्दर आदर्श समाज के सामने रख सकें यह समय की मांग है। जिस पर प्रभु की ड्डपा होती है उसकी आत्मा मात्र अपने स्वार्थ के लिए नहीं जी सकते। वह सदा उच्च व दिव्य जीवन की ओर स्वयं को बढ़ाने के लिए मचलता रहता है।
पुस्तक का लेखन कार्य प्रारम्भ करते हुए मेरे मन में इस प्रकार के विचार उमड़ रहे थे कि मेरा अपना परिवार ही अनेक प्रकार के रोगों से जूझता है फिर मुझे किसी को उपदेश देने का क्या अधिकार है? यह जिज्ञासा जब मैंने अपने एक परम मित्र से व्यक्त की तो उन्होंने तपाक से उत्तर दिया कि एक गम्भीर रोगी ही एक अच्छे मार्गदर्शक की भूमिका निभा सकता है क्योंकि वह रोग की जटिलताओं को स्वयं अनुभव करता है। यदि किसी पर कोई समस्या आपबीती हो उससे बढि़या समाधान उस समस्या का कौन बताएगा। इस उत्तर ने मेरा आत्मविश्वास बहुत बढ़ा दिया व मैंने अपने गुरु व इष्ट आराध्य का नाम लेकर पुस्तक का लेखन प्रारम्भ कर दिया। आप सभी सहयोगियों व पाठकों के उज्ज्वल भविष्य व स्वस्थ जीवन की मंगल कामना करते हुए अपनों से अपनी बात को पूर्ण करता हूॅं।
एक बार एक राजा के दरबार में एक बहुत तीक्ष्ण बु(ि का मंत्री था। इस कारण दूसरे मंत्री उससे जलते थे। एक समय ऐसा आया जब राजा के राज में कुछ विपरीत परिस्थितियों का उदय हुआ। सभी ने इसका ठीकरा उस बु(िमान मन्त्री के सिर फोड़ दिया। राजा को भी क्रोध आया व उसको ऊॅंची मीनार की ऊपरी मंजिल पर कैद कर लिया। मन्त्री की पत्नी बहुत दुःखी थी। जब उसको कैद कर ले जाया जा रहा था तो उसने अपनी पत्नी के पास से गुजरते हुए कहा कि उसकी मुक्ति के लिए रेशम की डोर भेजो। पत्नी की कुछ समझ में नहीं आया वह  गुरु के पास गयी व रेशम की डोर का रहस्य पूछा। गुरु मुस्कराए और बोले - ‘पुत्री! तू एक भृंगी ;कीड़ाद्ध पकड़कर ला और उसके पैरो में सूत बाॅंध दे, फिर उसकी मूॅंछ के बालों पर शहद की बूॅंद टपकाकर उसे मीनार की चोटी की ओर मुॅंह करके छोड़ देना।’ पत्नी को कुछ समझ में न आया, पर उसने गुरु की आज्ञा का पालन किया। भृंगी शहद की सुगंध का पीछा करते-करते मीनार की सबसे ऊॅंची मंजिल पर जा पहुॅंचा। सूत के वहाॅं पहुचने पर उसके सहारे डोरी और डोरी के सहारे रस्सा वहाॅं पहुॅंचाया गया। रस्से का सहारा लेकर मंत्री वहाॅं से मुक्त हो गया। धीरे - धीरे परिस्थितियाॅं सामान्य हुई व राजा को अपनी भूल पर पश्चाताप हुआ। राजा अपने बु(िमान मन्त्री को पुनः खोजकर उसका पद सम्मान समेत प्रदान किया।
इस पुस्तक में भी इस प्रकार के कुछ सूत्र-संकेत दिए गए हैं, जिनसे व्यक्ति अपने जटिल रोग से भी मुक्त हो सकता है। आवश्यकता ठीक से समझने व मनन करने की है।

Thursday, November 27, 2014

सत्य का उदय

             मन को ढालने एवं उसकी क्रियाओं को नियमित करने के उपाय भी बहुत सरल हैं। वास्तव में हमने स्वयं अपने खाली क्षणों में मन को इधर उधर निरुद्देश्य भटकने के लिए छोड़ कर बिगाड़ दिया है। यह आदत वर्षों तक रही और अब भटकना इसका दूसरा स्वाभाव सा बन गया है। अब यदि हमम न को प्रतिबन्ध में रखकर नियंत्रित करना चाहें तो हमें बहुत कम सफलता मिलेगी। हम इसे जितना ही बलपूर्वक दबाने का प्रयत्न करते हैं उतना ही यह विरोध करता और उछलता है जिससे और अधिक अशान्ति उत्पन्न्ा होती है। मन की क्रियाओं को नियन्त्रित करने का उचित उपाय उसे किसी एक पवित्र विचार पर जमा देना है (जैसा हम ध्यान में करते हैं) और उसमें से सभी अवांछित एवं फालतू विचारों को निकाल देना हैं। कुछ दिनों के निरन्तर अभयास के पश्चात् मन नियमित एवं अनुशासित हो जाता है और अधिकांश आन्तरिक अशान्ति निकल जाती है। अवांछित विचारों से मुक्ति पाने का सर्वोत्तम उपाय है कि हम उन्हें अनिमन्त्रित अतिथियों की भाँति मानें और उनकी ओर ध्यान न दें। वे तब असिंचित पौधों की भाँति मुरझा जायेंगे और अन्त में वही पवित्र विचार हमारे अन्दर प्रमुख हो जायेगा। इस स्थिति की प्राप्ति का एकमात्र उपाय किसी योग्य शिक्षक के मार्गदर्शन में ध्यान करना है। ध्यान के निरन्तर अभ्यास से मन शान्त एवं स्थिर हो जायेगा। और अवांछित विचार हमें त्रस्त नहीं करेंगे।
            मैं बहुधा प्रारम्भिक अभ्यासियों को ध्यान के समय मन के भटकते रहने के विषय में शिकायतें करते हुए सुनता हँू। ध्यान आरम्भ करते के प्रथम दिन से ही वे चाहते हैं कि उनका मन बिल्कुल निश्चल हो जायपरन्तु जब वे विभिन्न्ा भावों और विचारों को मन में मँडराते हुए पाते हैं तो वे अत्यन्त उद्विग्र हो जाते हैं। मैं उन्हें यह स्पष्ट कर दूँ कि हम अपने अभ्यास में मन को पूर्णतः विचारहीन बनाने का नहीं अपितु उसकी विभिन्न्ा क्रियाओं को केवल व्यवस्थित करने का प्रयास करते हैं। हम उसके स्वभाविक कार्य को नहीं रोकना चाहतेकेवल उसे व्यवस्थित एवं अनुशासित दशा में लाना चाहते हैं। यदि मन की क्रियायें आरम्भ में ही रोक दी जाये ंतो हमें कदाचित् ध्यान करने की बिलकुल आवश्यकता ही न रह जाये। ध्यान तो उसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए एकमात्र साधन है। ध्यान के फलस्वरूप समय बीतने पर एकाग्रता आती है। ध्यान करते समय मन में आने वाले बाह्य विचारों के प्रति सर्वथा उदासीन होकर ध्यान करना ही उचित तरीका है। अवांछित विचारों को दूर करने के लिए मानसिक द्वन्द्व बहुधा असफल हो जाता हैक्योंकि वह ऐसी तगड़ी प्रतिक्रिया उत्पन्न्ा कर देता है जिससे पार पाना साधारण मनुष्य के लिए बहुधा असम्भव हो जाता है और जो कभी-कभी मानसिक उथल-पुथल अथवा पागलपन का भी कारण बन सकता है। यह उनके लिए सम्भव हो सकता है जिन्होंने ब्रह्मचर्य द्वारा विचारों के प्रवाह को सफलतापूर्वक सम्हालने तथा उनकी प्रतिक्रियाओं के प्रभावों को रोकने के लिए काफी ओजस् उत्पन्न्ा कर लिया है। परन्तु साधारण मनुष्य के लिए यह लगभग असम्भव है। यदि विचारों को दूर रखने के लिए संघर्ष करने के स्थान पर हम केवल उनके प्रति उदासीन रहें तो बहुत शीद्य्र ही वे अपना प्रभाव खों देंगे और हमें परेशान करना बन्द कर देंगे। तब वे काफिले पर भूँकने वाले कुत्तों के समान होंगे जिनकी किंचित् मात्र परवाह किये बिना काफिला आगे बढ़ता जाता है। जब हम विचारों को रोकने के लिए इन पर ध्यान देते हैंतो उस एकाग्रता के कारण उन्हें शक्ति मिलती है तथा वे और बलवान हो जाते है।
            आजकल कुछ लोगों के लिए एक आम बहाना यह हो गया है कि अत्यधिक व्यस्तता के कारण उन्हें ध्यान अथवा ऐसे किसी अभ्यास के लिए समय नहीं मिलता। किन्तु यह एक प्रसिद्ध उक्ति है कि अत्यधिक व्यस्त व्यक्ति के ही पास अत्यधिक अवकाश रहता है। मैं समझता हँू कि मनुष्य के पास उसके काम से कहीं अधिक समय रहता है। समय के अभाव की शिकायत केवल समय की गलत व्यवस्था के कारण ही है। यदि हम अपने समय का पूर्ण सदुपयोग करें तो हमें समयाभाव की शिकायत करने का कभी कारण न मिलेगा। फिरकुछ और लोग हैंजो थोड़े अधिक स्पष्टवादी हैं और स्वीकार करते हैं कि वे समयाभाव के कारण नहीं अपितु अपनी लापरवाही और आलस्य की दुस्तर आदतों के कारण पूजा के लिए समय नहीं निकाल पाते। उनके लिए मैं कहूँगा कि वे अपने व्यापार या व्यवसाय में तो शायद कभी लापरवाही या काहिली नहीं बरतते। उनमें तो वे अपनी सारी व्यक्तिगत असुविधाओंयहाँ तक कि बीमारियों के बावजूद पूरे मनोयोग से जुटे रहते हैकेवल इसलिए कि इससे उन्हें कुछ धन लाभ हो पायेगा। भौतिक लाभ की उत्कण्ठा से वे सभी असुविधाओं एवं व्याधियों की परवाह नहीं करते। इसी प्रकार यदि लक्ष्य प्राप्ति की हमारी लगन तीव्र है तो हमारी लापरवाही एवं काहिली हमारे प्रयास अथवा उन्न्ाति के मार्ग में बाधक नहीं होगी। यदि हम प्राचीन ऋषियों के इतिहास पढ़े ंतो हमें ज्ञात होगा कि उन्होंने असलियत पाने के लिए जीवन के सभी सुखों का त्याग कर दिया था। वे त्याग एवं तपस्या का जीवन व्यतीत करते थे और अपने परम प्रिय उद्देश्य की प्राप्ति के लिए हर प्रकार के दुःख एवं कष्ट सहते थे। लक्ष्य प्राप्ति की तीव्र लगन उन्हें अन्य सभी वस्तुओं से विमुख कर देती थी और वे मार्ग में आने वाली कठिनाइयों एवं विषमताओं की परवाह किये बिना अपने पथ पर दृढ़ रहते थे। ध्येय प्राप्ति के लिए ऐसी तीव्र लगन एवं दृढ़ संकल्प पूर्ण सफलता के लिए अत्यन्त आवश्यक हैं। मैं आपको विश्वास दिला दूँ कि आप आध्यात्मिक क्षेत्र में महान उन्न्ाति कर सकते हैं यदि आप केवल अपना ध्यान ईश्वर की ओर केन्द्रित करके संकल्पविश्वास व श्रद्धा के साथ आगे बढ़ेंफिर चाहे आप गृहस्थ जीवन के सभी झंझटों और तकलीफों से घिरे हुए कितनी भी प्रतिकूल दशा में क्यों न रह रहे होंतब आपका व्यस्त जीवन आपके मार्ग में कोई बाधा न डालेगा।

            साधारणतया लोग अपने को असली वस्तु की प्राप्ति के लिए अत्यन्त कमजोर एवं अयोग्य सोचकर ईश्वर की ओर झिझक के साथ बढ़ते हैं। पहले ही कदम पर किया गया और अन्त तक बना रहने वाला दृढ़ संकल्प निश्चय ही आपको पूर्ण सफलता प्रदान करेगा। इस क्षेत्र में यदि कोई दृढ़ मन से प्रवेश करता है तो समझ लीजिये कि आधा रास्ता तय हो गया। सारी कठिनाई और निराशा एक ही निगाह में पिघल जायेगी और सफलता की राह सरल हो जायेगी। इसके विपरीतयदि मन आरम्भ में ही दुविधाग्रस्त होता है तो प्रयत्न भी आधे दिल से किये जाते हैं और परिणामतः आंशिक सफलता या असफलता ही हाथ लगती है। हमारा दृढ़ संकल्प कार्य सिद्धि के लिए हमें अज्ञात स्त्रोतों से शक्ति खींच लेने में समर्थ करता है। लक्ष्य प्राप्ति के लिए निरंतर वर्धमान उत्कंठा या बेचैनी से युक्त दृढ़ संकल्प हमारे प्रयत्नों की शक्ति को बढ़ा देगा और इस प्रकार हम अपनी आध्यात्मिक भलाई एवं उन्न्ाति के लिए मिलने वाले हर इशारे को समझते हुए उसी असलियत के सतत सम्पर्क में रहेंगे। इस प्रकार हमारी बेसब्री या हरदम की बेचैनी कि हम कम से कम समय में लक्ष्य तक पहँुचेहमारी शीद्य्र सफलता के लिए सबसे जरुरी बात है। जब तक हम अपना वास्तविक ध्येयशाश्वत शान्ति एवं स्थिरता न प्राप्त कर लेंहमें एक क्षण के लिए भी चैन न लेना चाहिये। किसी वस्तु के लिए तीव्र चाह स्वभावतः उसके लिए एक बेचैनी पैदा कर देती है। औरजब तक हम अपनी चाही हुई वसतु को न पा लें हमें शान्ति नहीं मिलती। इसलिये यह बेचैनी एक बहुत आवश्यक वस्तु है और जिस तरह भी हो उसे पैदा करना चाहिये। अतः शाश्वत शान्ति प्राप्त करने के लिए प्रारम्भिक दशा में हम अपने अन्दर बेचैनी और बेसब्री पैदा करते हैं। आपको देखने में यह विचित्र लगे कि मैं आपसे उसी वस्तु (बेचैनी) को उत्पन्न्ा करने की बात करता हँू जिसे लोग दूर करना चाहते हैं। परन्तु निश्चित एवं शीद्य्र सफलता के लिए एकमात्र यही रास्ता हैं। इस प्रकार से उत्पन्न्ा की गई बेचैनी अस्थायी होती है और मन में सामान्यः उत्पन्न्ा होने वाली बेचैनी से भिन्न्ा होती है। यह अधिक सूक्ष्म एवं अधिक आनन्दायक होती है। यह हमारे हृदय में दैवी प्रवाह का स्त्रोत खोल देती है और ईश्वरीय मण्डल में जाने के लिए हमारा मार्ग सुगम बना देती है। यदि आप किसी मनुष्य को पानी में डुबाने लगें तो आप देखेंगे कि वह आपके शिकंजे से छूटने के लिए अथक प्रयत्न करता है। इसका कारण केवल यही है कि पानी के बाहर शीद्य्र निकलने की उसकी बेचैनी उसके प्रयत्नों की शक्ति बढ़ा देती है और जब तक वह पानी से बाहर नहीं हो जाता है उसे चैन नहीं आता। उसी प्रकार शीद्य्र ही लक्ष्य तक पहुँचने की बेचैनी से उत्पन्न्ा होने वाले अथव प्रयत्नों से साक्षात्कार की राह पर हमारे कदम और भी तेज हो जायेंगे। और हम कम से कम समय में सरलतापूर्वक सफलता के द्वार तक पहँुच जायेंगे। शीद्य्र सफलता का यही सबसे सरल और कुशल उपाय है। 

Friday, November 21, 2014

संघर्ष से ही अभिष्ट की प्राप्ति सम्भव

            रोटी का स्वाद वह जानता है, जिसने परिश्रम करने के पश्चात् क्षुधार्त होकर ग्रास तोड़ा हो। धन का उपयोग वह जानता है, जिसने पसीना बहाकर कमाया हो। सफलता का मूल्यांकन वही कर सकता है, जिसने अनेक कठिनाईयों, बाधाओं और असफलताओं से संघर्ष किया हो। जो विपरीत परिस्थितियों और बाधाओं के बीच मुस्कुराते रहना और हर असफलता के बाद बड़े उत्साह से आगे बढ़ना जानता है, वस्तुतः वही विजय-लक्ष्मी का अधिकारी होता है।
            जो लोग सफलता के मार्ग में होने वाले विलम्ब की धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा नहीं कर सकते, जो लोग अभिष्ट प्राप्ति के पथ में आने वाली बाधाओं से लड़ना नहीं जानते, वे अपनी अयोग्यता और ओछेपन को बेचारे भाग्य के ऊपर थोपकर स्वयं निर्दोष बनने का उपहासप्रद प्रयत्न करते हैं। ऐसी आत्मप्रवंचना से लाभ कुछ नहीं, हानि अपार है। सबसे बड़ी हानि यह है कि अपने को अभागा मानने वाला मनुष्य आशा के प्रकाश से हाथ धो बैठता है और निराशा के अंधकार में भटकते रहने के कारण इष्ट प्राप्ति से कोसों पीछे रह जाता है।

            बाधाएॅं, कठिनाइयाॅं, आपत्तियाॅं और असफलताएॅं एक प्रकार की कसौटी हैं, जिन पर पात्र-कुपात्र की, खरे-खोटे की परख होती है। जो इस कसौटी पर खरे उतरते हैं, सफलता के अधिकारी सिद्ध होते हैं, उन्हें ही इष्ट की प्राप्ति होती है।

Tuesday, October 21, 2014

काॅंच की बरनी और दो कप चाय

            जीवन में जब सब कुछ एक साथ और जल्दी-जल्दी करने की इच्छा होती है, सब कुछ तेजी से पा लेने की इच्छा होती है, और हमें लगने लगता है कि दिन के चैबीस घण्टें भी कम पड़ते हैं, उस समय ये बोध कथा, ‘‘काॅंच की बरनी और दो कप चाय’’ हमें याद आती है। दर्शनशास्त्र के एक प्रोफेसर कक्षा में आए और उन्होंने छात्रों से कहा कि वे आज जीवन का एक महत्तवपूर्ण पाठ पढ़ाने वाले हैं... उन्होंने अपने साथ लाई एक काॅंच की बड़ी बरनी (जार) टेबल पर रखा और उसमें टेबल टेनिस की गेंदे डालने लगे और तक तक डालते रहे जब तक कि उसमें एक भी गेंद समाने की जगह नहीं बची... उन्होंने छात्रों से पूछा - क्या बरनी पूरी तरह भर गई?
हाॅं ... आवाज आई... फिर प्रोफेसर साहब ने छोटे-छोटे कंकर उसमें भरने शुरू किए, धीरे-धीरे बरनी को हिलाया तो काफी सारे कंकर उसमें जहाॅं जगह खाली थी, समा गए, फिर से प्रोफेसर साहब ने पूछा, क्या अब बरनी भर गई है, छात्रों ने एक बार फिर हाॅं...कहा अब प्रोफेसर साहब ने रेत की थैली से हौले-हौले उस बरनी में रेत डालना शुरू किया, वह रेत भी उस जार में जहाॅं सम्भव थी बैठ गई, अब छात्र अपनी नादानी पर हॅंसे... फिर प्रोफेसर साहब ने पूछा, क्यों अब तो बरनी पूरी भर गई ना? हाॅं... अब तो पूरी भर गई है... सभी ने एक स्वर में कहा... सर ने टेबल के नीचे चाय के दो कप निकालकर उनकी चाय जार में डाली, चाय भी रेत के बीच में स्थित थोड़ी सी जगह में सोख ली गई...प्रोफेसर साहब ने गम्भीर आवाज में समझाना शुरू किया - काॅंच की बरनी को तुम लोग अपना जीवन समझो... टेबल टेनिस की गेंदें सबसे महत्त्वपूर्ण भाग अर्थात् भगवान, परिवार, बच्चे, मित्र, स्वास्थ्य और शौक हैं, छोटे कंकर मतलब तुम्हारी नौकरी, कार, बड़ा मकान आदि हैं, और रेत का मतलब और भी छोटी-छोटी बेकार की बातें, मनमुटाव, झगड़े हैं... अब यदि तुमने काॅंच की बरनी में सबसे पहले रेत भरी होती तो टेबल टेनिस की गेंदों और कंकरों के लिए जगह ही नहीं बचती, या कंकर भर दिये होते तो गेंदें नहीं भर पाते, रेत जरूर आ सकती थी... ठीक यही बात जीवन पर लागू होती है... यदि तुम छोटी-छोटी बातों के पीछे पड़े रहोगे और अपनी उर्जा उसमें नष्ट करोगे तो तुम्हारे पास मुख्य बातों के लिए अधिक समय नहीं रहेगा... मन के सुख के लिए क्या जरूरी है ये तुम्हें तय करना है।
            अपने बच्चों के साथ खेलो, बगीचे में पानी दो, सुबह पत्नी के साथ घूमने निकल जाओ, घर के बेकार सामान को बाहर निकाल फेंको... टेबल टेनिस गेंदों की फिक्र पहले करो, वही महत्त्वपूर्ण है... पहले तय करो कि क्या जरूरी है... बाकी सब तो रेत है... छात्र बड़े ध्यान से सुन रहे थे... अचानक एक छात्र ने पूछा, सर लेकिन आपने यह नहीं बताया कि ‘‘चाय के दो कप’’ क्या हैं? प्रोफेसर मुस्कुराए, बोले... मैं सोच ही रहा था कि अभी तक ये सवाल किसी ने क्यों नहीं किया... इसका उत्तर यह है कि, जीवन हमें कितना ही परिपूर्ण और संतुष्ट लगे, लेकिन अपने खास मित्र के साथ दो कप चाय पीने की जगह हमेशा होनी चाहिए।

अपने खास मित्रों और निकट के व्यक्तियों को यह विचार तत्काल बाॅंट दो... मैंने अभी-अभी यही किया है।

Monday, October 20, 2014

जीवन दर्शन - बेटा गंवाकर कायम किया अनुशासन

            घटना उन दिनों की है, जब बगदाद में खलीफा उमर का शासन था। वे अपनी प्रजा के सच्चे अर्थों में संरक्षक थे। उनके राज में कभी प्रजा अत्याचार का शिकार नहीं हुई। खलीफा नेक दिल और इंसाफ पसंद व्यक्ति थे। नियमों का पालन उनकी प्रजा से लेकर हर खास अधिकारी तक होता था। वे स्वयं भी नियमों के पाबंद थे। अनुशासनप्रियता उनके स्वभाव में थी। एक बार उन्हें शिकायत मिली कि राज्य में शराबियों का उत्पात बढ़ रहा है। खलीफा नैतिक मूल्यों को लेकर भी अत्यंत सजग थे। उन्होंने अपने राज्य के शराबियों की लत छुड़ाने के लिए घोषणा की, ‘यदि कोई व्यक्ति शराब पीता हुआ या पीए हुए पकड़ा गया तो उसे भरे दरबार में 25 कोड़े लगाए जाएॅंगे।उनकी इस घोषणा ने पूरे राज्य के शराबियों में खलबली मचा दी। चूंकि व्यसनों के आदी लोग इच्छाशक्ति के अभाव में अपने व्यसन नहीं रोक रहे थे, इसलिए उन्होंने खलीफा को आदेश वापिस ले मजबूर करने के लिए खलीफा के पुत्र को शराब पीला बाजार में छोड़ दिया। सैनिकों ने उसकी यह दशा देखकर उसे तुरन्त खलीफा के समक्ष दरबार में पेश किया। खलीफा ने बिना संकोच आदेश दिया, ‘अपराधी की नंगी चमड़ी पर 25 कोड़े लगाए जाएॅं।दरबारियों ने खलीफा को मनाने की बहुत कौशिश की, किंतु वे नहीं माने। अंततः खलीफा के पुत्र को कोड़े लगाए गए। वह बेहोश होकर और कुछ ही देर में उसकी मृत्यु हो गई। उस घटना से खलीफा का राज्य शराबियों से मुक्त हो गया। समाज में समान रूप से नियमों का पालन करने पर अनुशासन रहता है और अनुशासन से सुगठित सामाजिक व्यवस्था स्थापित होती है।

स्वाध्याय - सत्संग द्वारा सद्विचारों की प्राप्ति

            आज की परिस्थितियों में जो भी संभव हो हमें ऐसा साहित्य तलाश करना चाहिए जो प्रकाश एवं प्रेरणा प्रदान करने की क्षमता से सम्पन्न हो। उसे पढ़ने के लिए कम से कम एक घण्टा निश्चित रूप से नियत करना चाहिए। धीरे-धीरे समझ-समझ कर विचारपूर्वक उसे पढ़ना चाहिए। पढ़ने के बाद उन विचारों पर बराबर मनन करना चाहिए। जब भी मस्तिष्क खाली रहे यह सोचना आरम्भ कर देना चाहिए कि आज के स्वाध्याय में जो पढ़ा गया था, उस आदर्श तक पहुॅंचने के लिए हम प्रयत्न करें, जो कुछ सुधार सम्भव है उसे किसी न किसी रूप में जल्दी ही आरम्भ करें। श्रेष्ठ लोगों के चरित्रों को पढ़ना और वैसे ही गौरव स्वयं भी प्राप्त करने की बात सोचते रहना मनन और चिन्तन की दृष्टि से आवश्यक है।
             जितनी अधिक देर तक मन में उच्च भावनाओं का प्रवाह बहता रहे उतना ही अच्छा है। ऐसा साहित्य हमारे लिए संजीवन बूटी का काम करेगा। उसे पढ़ना अपने अत्यंत प्राणप्रिय कामों में से एक बना लेना चाहिए।
            कहीं से भी, किसी प्रकार से भी जीवन को समुचित बनाने वाले, सुलझे हुए उत्कृष्ट विचारों को मस्तिष्क में भरने का साधन जुटाना चाहिए। स्वाध्याय से, सत्संग से, मनन से, चिन्तन से जैसे भी बन पड़े वैसे यह प्रयत्न करना चाहिए कि हमारा मस्तिष्क उच्च विचारधारा में निमग्न रहे यदि इस प्रकार के विचारों में मन लगने लगे, उनकी उपयोगिता समझ पड़ने लगे, उनको अपनाते हुए आनन्द का अनुभव होने लगे तो समझना चाहिए कि आधी मंजिल पार कर ली गई।
            कैसा अच्छा होता कि प्राचीनकाल की तरह जीवन के प्रत्येक पहलू पर उत्कृष्ट समाधान प्रस्तुत करने वाले साधु-ब्राह्मण आज भी हमें उपलब्ध रहे होते। वे अपने उज्ज्वल चरित्र, सुलझे हुए मस्तिष्क और परिपक्व ज्ञान द्वारा सच्चा मार्गदर्शन करा सकते तो कुमार्ग पर ले जाने वाली सभी दुष्प्रवृत्तियाॅं शमन होतीं पर आज उनके दर्शन दुर्लभ हैं। देश, काल और पात्र की स्थिति का ध्यान रखते हुए आज के बुद्धिवादी एवं संघर्षमय युग के अनुरूप समाधान प्रस्तुत करके जीवन को उळॅंचा उठाने वाले व्यावहारिक सुझाव दे सकें, ऐसे मनीषी कहाॅं हैं? उनका अभाव इतना अखरता है कि चारों ओर सूना ही सूना दीखता है। ऋिषियों की यह भूमि ऋषि तत्व से रहित हो गई, जैसी लगती है।
            उत्कृष्ट एवं प्रौढ़ विचारों को अधिकाधिक समय तक हमारे मस्तिष्क में स्थान मिलता रहे ऐसा प्रबंध यदि कर लिया जाए तो कुछ ही दिनों में अपनी इच्छा, अभिलाषा और प्रवृति उसी दिशा में ढल जाएगी और बाह्य जीवन में वह सात्विक परिवर्तन स्पष्ट दृष्टिगोचर होने लगेगा। विचारों की शक्ति महान है, उससे हमारा जीवन तो बदलेगा ही है संसार का नक्शा भी बदल सकता है।
            सद्विचारों की महत्ता का अनुभव तो हम करते हैं पर उनकी दृढ़ता नहीं रह पाती। जब कोई अच्छी पुस्तक पढ़ते या सत्संग, प्रवचन सुनते हैं तो इच्छा होती है कि इसी अच्छे मार्ग पर चलें पर जैसे ही वह प्रसंग पलटा कि दूसरी प्रकार के पूर्व अभ्यास, विचार पुनः मस्तिष्क पर अधिकार जमा लेते हैं और वही पुराना घिसा-पिटा कार्यक्रम पुनः चलने लगता है। इस प्रकार उत्कृष्ट जीवन बनाने की आकांक्षा एक कल्पना मात्र बनी रहती है, उसके चरितार्थ होने का अवसर प्रायः आने ही नहीं पाता।
            कारण यह है कि अभ्यस्त विचार बहुत दिनों से मस्तिष्क में अपनी जड़ जमाये हुए हैं, मन उनका अभ्यस्त भी बना हुआ है। शरीर ने एक स्वभाव एवं ढर्रे के रूप में उन्हें समझाया हुआ है। इस प्रकार उन पुराने विचारों का पूरा आधिपत्य अपने मन और शरीर पर जमा हुआ है। यह आधिपत्य हटे और ये उत्कृष्ट विचार वह स्थान ग्रहण करें तो ही यह सम्भव है कि मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार और अंतःकरण चतुष्टय बदले। जब अन्तःभूमिका बदलेगी तब उसका प्रकाश बाह्य कार्यक्रमों में दृष्टिगोचर होगा। परिवर्तन का यही तरीका है।
            जिसका बहुमत होता है उसकी जीत होती है। बहती गंगा में यदि थोड़ा मैला पानी पड़ जाए तो उसकी गंदगी प्रभावशाली न होगी, पर यदि गन्दे नाले में थोड़ा गंगा जल डाला जाए तो उसे पवित्र न बनाया जा सकेगा। इसी प्रकार यदि मन में अधिक समय तक बुरे विचार भरे रहेंगे तो थोड़ी देर, थोड़े से अच्छे विचारों को स्थान देने से भी कितना काम चलेगा? उचित यही है कि हमारा अधिकांश समय इस प्रकार बीते जिससे उच्च भावनाएॅं ही मनोभूमि में विचरण करती रहें।
            विचारों को जितनी तीव्रता और निष्ठा के साथ जितनी अधिक देर मस्तिष्क में निवास करने का अवसर मिलता है वैसे ही प्रभाव मनोभूमि में प्रबलता होती चलती है। देर तक स्वार्थपूर्ण विचार मन में रहें और थोड़ी देर सद्विचारों के लिए अवसर मिले तो वह अधिक देर रहने वाला प्रभाव कम समय वाले प्रभाव को परास्त कर देगा। इसलिए उत्कृष्ट जीवन की वास्तविक आकांक्षा करने वाले के लिए एक ही मार्ग रह जाता है कि मन में अधिक समय तक अधिक प्रौढ़, अधिक प्रेरणाप्रद उत्कृष्ट कोटि के विचारों को स्थान मिले।
            समाज के पुननिर्माण के लिए हमें स्वस्थ परम्पराओं को सुविकसित करने और हानिकारक कुरीतियों को हटाने के लिए कुछ विशेष काम करना पड़़ेगा। अव्यवस्थित समाज में रहने वाले व्यक्ति कभी महापुरुष नहीं बन सकते। चारों ओर फैली हुई निकृष्ट प्रथाएॅं तथा विचारधाराएॅं बालकपन से ही मनुष्य को प्रभावित करती हैं। ऐसी दशा में उनका मन भी संकीर्णताओं और ओछेपन से भरा रहता है। व्यक्तित्व के विकास के लिए समाज का स्तर उळॅंचा उठाना आवश्यक है। इसीलिए अध्यात्म तत्व को मूर्तिमान देखने की आकांक्षा करने वाले प्रबुद्ध व्यक्तियों को अपने समय के समाज में प्रचलित अव्यवस्थाओं को दूर करने के लिए कुछ ठोस और कड़े कदम उठाने ही पड़ते हैं।
            हम भी इन जिम्मेदारियों से बच नहीं सकते। सामाजिक पुनर्निर्माण के लिए साहसपूर्ण कदम उठाने की आवश्यकता है। युग निर्माण योजना को समग्र रूप से कार्यान्वित करने के लिए प्रभावशाली नेतृत्वों की आवश्यकता की पूर्ति की जानी चाहिए। अपने परिवार में ऐसे व्यक्तियों की कमी नहीं जो नेतृत्व के लिए सर्वथा उपयुक्त हैं, उनके कदम आगे बढ़ने चाहिए। समय की पुकार अनसुनी न की जानी चाहिए। आन्दोलनों के आरम्भकत्र्ता अपने मौलिक साहस के कारण अधिक श्रेय प्राप्त करते हैं। पीछे तो उसके व्यापक हो जाने पर अनेक उपयुक्त व्यक्ति उसमें आ मिलते हैं। देखना यह है कि युग की इस महान् आवश्यकता की पूर्ति के लिए साहसपूर्ण कदम उठाने के लिए हम में से कौन आगे बढ़ते हैं और किसको इतिहास में अमर बनाने वाला श्रेय लाभ प्राप्त होता है।