Tuesday, October 21, 2014

काॅंच की बरनी और दो कप चाय

            जीवन में जब सब कुछ एक साथ और जल्दी-जल्दी करने की इच्छा होती है, सब कुछ तेजी से पा लेने की इच्छा होती है, और हमें लगने लगता है कि दिन के चैबीस घण्टें भी कम पड़ते हैं, उस समय ये बोध कथा, ‘‘काॅंच की बरनी और दो कप चाय’’ हमें याद आती है। दर्शनशास्त्र के एक प्रोफेसर कक्षा में आए और उन्होंने छात्रों से कहा कि वे आज जीवन का एक महत्तवपूर्ण पाठ पढ़ाने वाले हैं... उन्होंने अपने साथ लाई एक काॅंच की बड़ी बरनी (जार) टेबल पर रखा और उसमें टेबल टेनिस की गेंदे डालने लगे और तक तक डालते रहे जब तक कि उसमें एक भी गेंद समाने की जगह नहीं बची... उन्होंने छात्रों से पूछा - क्या बरनी पूरी तरह भर गई?
हाॅं ... आवाज आई... फिर प्रोफेसर साहब ने छोटे-छोटे कंकर उसमें भरने शुरू किए, धीरे-धीरे बरनी को हिलाया तो काफी सारे कंकर उसमें जहाॅं जगह खाली थी, समा गए, फिर से प्रोफेसर साहब ने पूछा, क्या अब बरनी भर गई है, छात्रों ने एक बार फिर हाॅं...कहा अब प्रोफेसर साहब ने रेत की थैली से हौले-हौले उस बरनी में रेत डालना शुरू किया, वह रेत भी उस जार में जहाॅं सम्भव थी बैठ गई, अब छात्र अपनी नादानी पर हॅंसे... फिर प्रोफेसर साहब ने पूछा, क्यों अब तो बरनी पूरी भर गई ना? हाॅं... अब तो पूरी भर गई है... सभी ने एक स्वर में कहा... सर ने टेबल के नीचे चाय के दो कप निकालकर उनकी चाय जार में डाली, चाय भी रेत के बीच में स्थित थोड़ी सी जगह में सोख ली गई...प्रोफेसर साहब ने गम्भीर आवाज में समझाना शुरू किया - काॅंच की बरनी को तुम लोग अपना जीवन समझो... टेबल टेनिस की गेंदें सबसे महत्त्वपूर्ण भाग अर्थात् भगवान, परिवार, बच्चे, मित्र, स्वास्थ्य और शौक हैं, छोटे कंकर मतलब तुम्हारी नौकरी, कार, बड़ा मकान आदि हैं, और रेत का मतलब और भी छोटी-छोटी बेकार की बातें, मनमुटाव, झगड़े हैं... अब यदि तुमने काॅंच की बरनी में सबसे पहले रेत भरी होती तो टेबल टेनिस की गेंदों और कंकरों के लिए जगह ही नहीं बचती, या कंकर भर दिये होते तो गेंदें नहीं भर पाते, रेत जरूर आ सकती थी... ठीक यही बात जीवन पर लागू होती है... यदि तुम छोटी-छोटी बातों के पीछे पड़े रहोगे और अपनी उर्जा उसमें नष्ट करोगे तो तुम्हारे पास मुख्य बातों के लिए अधिक समय नहीं रहेगा... मन के सुख के लिए क्या जरूरी है ये तुम्हें तय करना है।
            अपने बच्चों के साथ खेलो, बगीचे में पानी दो, सुबह पत्नी के साथ घूमने निकल जाओ, घर के बेकार सामान को बाहर निकाल फेंको... टेबल टेनिस गेंदों की फिक्र पहले करो, वही महत्त्वपूर्ण है... पहले तय करो कि क्या जरूरी है... बाकी सब तो रेत है... छात्र बड़े ध्यान से सुन रहे थे... अचानक एक छात्र ने पूछा, सर लेकिन आपने यह नहीं बताया कि ‘‘चाय के दो कप’’ क्या हैं? प्रोफेसर मुस्कुराए, बोले... मैं सोच ही रहा था कि अभी तक ये सवाल किसी ने क्यों नहीं किया... इसका उत्तर यह है कि, जीवन हमें कितना ही परिपूर्ण और संतुष्ट लगे, लेकिन अपने खास मित्र के साथ दो कप चाय पीने की जगह हमेशा होनी चाहिए।

अपने खास मित्रों और निकट के व्यक्तियों को यह विचार तत्काल बाॅंट दो... मैंने अभी-अभी यही किया है।

Monday, October 20, 2014

जीवन दर्शन - बेटा गंवाकर कायम किया अनुशासन

            घटना उन दिनों की है, जब बगदाद में खलीफा उमर का शासन था। वे अपनी प्रजा के सच्चे अर्थों में संरक्षक थे। उनके राज में कभी प्रजा अत्याचार का शिकार नहीं हुई। खलीफा नेक दिल और इंसाफ पसंद व्यक्ति थे। नियमों का पालन उनकी प्रजा से लेकर हर खास अधिकारी तक होता था। वे स्वयं भी नियमों के पाबंद थे। अनुशासनप्रियता उनके स्वभाव में थी। एक बार उन्हें शिकायत मिली कि राज्य में शराबियों का उत्पात बढ़ रहा है। खलीफा नैतिक मूल्यों को लेकर भी अत्यंत सजग थे। उन्होंने अपने राज्य के शराबियों की लत छुड़ाने के लिए घोषणा की, ‘यदि कोई व्यक्ति शराब पीता हुआ या पीए हुए पकड़ा गया तो उसे भरे दरबार में 25 कोड़े लगाए जाएॅंगे।उनकी इस घोषणा ने पूरे राज्य के शराबियों में खलबली मचा दी। चूंकि व्यसनों के आदी लोग इच्छाशक्ति के अभाव में अपने व्यसन नहीं रोक रहे थे, इसलिए उन्होंने खलीफा को आदेश वापिस ले मजबूर करने के लिए खलीफा के पुत्र को शराब पीला बाजार में छोड़ दिया। सैनिकों ने उसकी यह दशा देखकर उसे तुरन्त खलीफा के समक्ष दरबार में पेश किया। खलीफा ने बिना संकोच आदेश दिया, ‘अपराधी की नंगी चमड़ी पर 25 कोड़े लगाए जाएॅं।दरबारियों ने खलीफा को मनाने की बहुत कौशिश की, किंतु वे नहीं माने। अंततः खलीफा के पुत्र को कोड़े लगाए गए। वह बेहोश होकर और कुछ ही देर में उसकी मृत्यु हो गई। उस घटना से खलीफा का राज्य शराबियों से मुक्त हो गया। समाज में समान रूप से नियमों का पालन करने पर अनुशासन रहता है और अनुशासन से सुगठित सामाजिक व्यवस्था स्थापित होती है।

स्वाध्याय - सत्संग द्वारा सद्विचारों की प्राप्ति

            आज की परिस्थितियों में जो भी संभव हो हमें ऐसा साहित्य तलाश करना चाहिए जो प्रकाश एवं प्रेरणा प्रदान करने की क्षमता से सम्पन्न हो। उसे पढ़ने के लिए कम से कम एक घण्टा निश्चित रूप से नियत करना चाहिए। धीरे-धीरे समझ-समझ कर विचारपूर्वक उसे पढ़ना चाहिए। पढ़ने के बाद उन विचारों पर बराबर मनन करना चाहिए। जब भी मस्तिष्क खाली रहे यह सोचना आरम्भ कर देना चाहिए कि आज के स्वाध्याय में जो पढ़ा गया था, उस आदर्श तक पहुॅंचने के लिए हम प्रयत्न करें, जो कुछ सुधार सम्भव है उसे किसी न किसी रूप में जल्दी ही आरम्भ करें। श्रेष्ठ लोगों के चरित्रों को पढ़ना और वैसे ही गौरव स्वयं भी प्राप्त करने की बात सोचते रहना मनन और चिन्तन की दृष्टि से आवश्यक है।
             जितनी अधिक देर तक मन में उच्च भावनाओं का प्रवाह बहता रहे उतना ही अच्छा है। ऐसा साहित्य हमारे लिए संजीवन बूटी का काम करेगा। उसे पढ़ना अपने अत्यंत प्राणप्रिय कामों में से एक बना लेना चाहिए।
            कहीं से भी, किसी प्रकार से भी जीवन को समुचित बनाने वाले, सुलझे हुए उत्कृष्ट विचारों को मस्तिष्क में भरने का साधन जुटाना चाहिए। स्वाध्याय से, सत्संग से, मनन से, चिन्तन से जैसे भी बन पड़े वैसे यह प्रयत्न करना चाहिए कि हमारा मस्तिष्क उच्च विचारधारा में निमग्न रहे यदि इस प्रकार के विचारों में मन लगने लगे, उनकी उपयोगिता समझ पड़ने लगे, उनको अपनाते हुए आनन्द का अनुभव होने लगे तो समझना चाहिए कि आधी मंजिल पार कर ली गई।
            कैसा अच्छा होता कि प्राचीनकाल की तरह जीवन के प्रत्येक पहलू पर उत्कृष्ट समाधान प्रस्तुत करने वाले साधु-ब्राह्मण आज भी हमें उपलब्ध रहे होते। वे अपने उज्ज्वल चरित्र, सुलझे हुए मस्तिष्क और परिपक्व ज्ञान द्वारा सच्चा मार्गदर्शन करा सकते तो कुमार्ग पर ले जाने वाली सभी दुष्प्रवृत्तियाॅं शमन होतीं पर आज उनके दर्शन दुर्लभ हैं। देश, काल और पात्र की स्थिति का ध्यान रखते हुए आज के बुद्धिवादी एवं संघर्षमय युग के अनुरूप समाधान प्रस्तुत करके जीवन को उळॅंचा उठाने वाले व्यावहारिक सुझाव दे सकें, ऐसे मनीषी कहाॅं हैं? उनका अभाव इतना अखरता है कि चारों ओर सूना ही सूना दीखता है। ऋिषियों की यह भूमि ऋषि तत्व से रहित हो गई, जैसी लगती है।
            उत्कृष्ट एवं प्रौढ़ विचारों को अधिकाधिक समय तक हमारे मस्तिष्क में स्थान मिलता रहे ऐसा प्रबंध यदि कर लिया जाए तो कुछ ही दिनों में अपनी इच्छा, अभिलाषा और प्रवृति उसी दिशा में ढल जाएगी और बाह्य जीवन में वह सात्विक परिवर्तन स्पष्ट दृष्टिगोचर होने लगेगा। विचारों की शक्ति महान है, उससे हमारा जीवन तो बदलेगा ही है संसार का नक्शा भी बदल सकता है।
            सद्विचारों की महत्ता का अनुभव तो हम करते हैं पर उनकी दृढ़ता नहीं रह पाती। जब कोई अच्छी पुस्तक पढ़ते या सत्संग, प्रवचन सुनते हैं तो इच्छा होती है कि इसी अच्छे मार्ग पर चलें पर जैसे ही वह प्रसंग पलटा कि दूसरी प्रकार के पूर्व अभ्यास, विचार पुनः मस्तिष्क पर अधिकार जमा लेते हैं और वही पुराना घिसा-पिटा कार्यक्रम पुनः चलने लगता है। इस प्रकार उत्कृष्ट जीवन बनाने की आकांक्षा एक कल्पना मात्र बनी रहती है, उसके चरितार्थ होने का अवसर प्रायः आने ही नहीं पाता।
            कारण यह है कि अभ्यस्त विचार बहुत दिनों से मस्तिष्क में अपनी जड़ जमाये हुए हैं, मन उनका अभ्यस्त भी बना हुआ है। शरीर ने एक स्वभाव एवं ढर्रे के रूप में उन्हें समझाया हुआ है। इस प्रकार उन पुराने विचारों का पूरा आधिपत्य अपने मन और शरीर पर जमा हुआ है। यह आधिपत्य हटे और ये उत्कृष्ट विचार वह स्थान ग्रहण करें तो ही यह सम्भव है कि मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार और अंतःकरण चतुष्टय बदले। जब अन्तःभूमिका बदलेगी तब उसका प्रकाश बाह्य कार्यक्रमों में दृष्टिगोचर होगा। परिवर्तन का यही तरीका है।
            जिसका बहुमत होता है उसकी जीत होती है। बहती गंगा में यदि थोड़ा मैला पानी पड़ जाए तो उसकी गंदगी प्रभावशाली न होगी, पर यदि गन्दे नाले में थोड़ा गंगा जल डाला जाए तो उसे पवित्र न बनाया जा सकेगा। इसी प्रकार यदि मन में अधिक समय तक बुरे विचार भरे रहेंगे तो थोड़ी देर, थोड़े से अच्छे विचारों को स्थान देने से भी कितना काम चलेगा? उचित यही है कि हमारा अधिकांश समय इस प्रकार बीते जिससे उच्च भावनाएॅं ही मनोभूमि में विचरण करती रहें।
            विचारों को जितनी तीव्रता और निष्ठा के साथ जितनी अधिक देर मस्तिष्क में निवास करने का अवसर मिलता है वैसे ही प्रभाव मनोभूमि में प्रबलता होती चलती है। देर तक स्वार्थपूर्ण विचार मन में रहें और थोड़ी देर सद्विचारों के लिए अवसर मिले तो वह अधिक देर रहने वाला प्रभाव कम समय वाले प्रभाव को परास्त कर देगा। इसलिए उत्कृष्ट जीवन की वास्तविक आकांक्षा करने वाले के लिए एक ही मार्ग रह जाता है कि मन में अधिक समय तक अधिक प्रौढ़, अधिक प्रेरणाप्रद उत्कृष्ट कोटि के विचारों को स्थान मिले।
            समाज के पुननिर्माण के लिए हमें स्वस्थ परम्पराओं को सुविकसित करने और हानिकारक कुरीतियों को हटाने के लिए कुछ विशेष काम करना पड़़ेगा। अव्यवस्थित समाज में रहने वाले व्यक्ति कभी महापुरुष नहीं बन सकते। चारों ओर फैली हुई निकृष्ट प्रथाएॅं तथा विचारधाराएॅं बालकपन से ही मनुष्य को प्रभावित करती हैं। ऐसी दशा में उनका मन भी संकीर्णताओं और ओछेपन से भरा रहता है। व्यक्तित्व के विकास के लिए समाज का स्तर उळॅंचा उठाना आवश्यक है। इसीलिए अध्यात्म तत्व को मूर्तिमान देखने की आकांक्षा करने वाले प्रबुद्ध व्यक्तियों को अपने समय के समाज में प्रचलित अव्यवस्थाओं को दूर करने के लिए कुछ ठोस और कड़े कदम उठाने ही पड़ते हैं।
            हम भी इन जिम्मेदारियों से बच नहीं सकते। सामाजिक पुनर्निर्माण के लिए साहसपूर्ण कदम उठाने की आवश्यकता है। युग निर्माण योजना को समग्र रूप से कार्यान्वित करने के लिए प्रभावशाली नेतृत्वों की आवश्यकता की पूर्ति की जानी चाहिए। अपने परिवार में ऐसे व्यक्तियों की कमी नहीं जो नेतृत्व के लिए सर्वथा उपयुक्त हैं, उनके कदम आगे बढ़ने चाहिए। समय की पुकार अनसुनी न की जानी चाहिए। आन्दोलनों के आरम्भकत्र्ता अपने मौलिक साहस के कारण अधिक श्रेय प्राप्त करते हैं। पीछे तो उसके व्यापक हो जाने पर अनेक उपयुक्त व्यक्ति उसमें आ मिलते हैं। देखना यह है कि युग की इस महान् आवश्यकता की पूर्ति के लिए साहसपूर्ण कदम उठाने के लिए हम में से कौन आगे बढ़ते हैं और किसको इतिहास में अमर बनाने वाला श्रेय लाभ प्राप्त होता है।

Sunday, October 19, 2014

स्वास्थ्य के स्वर्णिम 40 सूत्र

1. भूख व भोजन 
     अच्छे स्वास्थ्य के लिए यह आवश्यक है कि उचित भूख लगने पर ही भोजन किया जाए। ऐसा क्यों करें? कारण यह है कि जो भोजन हम करते हैं उसका परिपाक आमाश्य में होता है। यदि भूख ठीक न हो तो आमाशय के द्वारा भोजन ठीक से नहीं पकता अथवा पचता। इस कारण भोजन से जो रस उत्पन्न होते है वो दूषित रहते हैं। ये रस व्यक्ति में रोग उत्पन्न करते हैं व स्वास्थ्य खराब करते हैं। इस समस्या के आयुर्वेद में आमवात कहा जाता है। किसी ने सत्य ही कहा है-
   ‘‘आम कर दे काम तमाम’’ 
“AMA” is the term used in Ayurveda for endotoxins. The “Ama” are endotoxins formed in the intestines due to faulty digestion. The low digestive fire leads to formation of fermentation inside the intestines and that in turn can increase the formation of pus and mucus. The formation of “Ama” is increased if the food is rich in fast foods, packaged food, burgers, pizzas, non-veg diet and other heavy greasy items. Cheese is also not good in this case. Milk and dairy products should also be avoided.- (Dr. Vikram Chauhan)
यह आमवात ही सन्धिवात का मूल कारण होता है।
         परन्तु आज विडम्बना यह है कि व्यक्ति को खुलकर भूख लगना ही भूख लगना ही बंद हो गया है प्राकृतिक भूख व्यक्ति को लग नहीं पा रही है। बस दो या तीन समय भोजन सामने देख व्यक्ति भोजन कर डालता है। ऐसी स्थिति में व्यक्ति भूख से कम खाए। बहुत से व्यक्ति डायबिटिज व अन्य घातक रोगों के चंगुल में फंस कर बहुत कमजोर हो गए है। ऐसे लोगों को यह सुझाव दिया जाता है कि हर दो तीन घण्टें में कुछ न कुछ खाते रहें अन्यथा बहुत दुर्बलता अथवा अम्लता (Acidity) बनने लगेगी।
       इसमें कोई दो राय नहीं है कि यदि व्यक्ति किसी जटिल रोग के चंगुल में फंस गया है तो उसी अनुसार उसे अपने जीवनक्रम को ढालना पड़ेगा जब तक वह उससे मुक्त न हो जाए अन्यथा यह उसके लिए गणघातक हो सकता है।
        स्वस्थ व्यक्ति के लिए यह अच्छा होगा कि हफते दस दिन में एक बार उपवास अवश्य करें। उपवास उचित रीति से करें इसके लिए पुस्तक सनातन धर्म का प्रसाद पढ़ें।
          पहले लोग खूब मेहनत करते थे व डटकर खाना खाते थे उनको सबकुछ हजम होता था व स्वास्थ्य बढि़या रहता था, क्योंकि उचित शारीरिक श्रम से खूब बढि़या भूख लगती थी।
2. शारीरिक श्रम व व्यायाम
           हमारा सम्पूर्ण शरीर माॅंसपेशियों का बना है। माॅंसपेशियों की ताकत बनाए रखने के लिए उचित शारीरिक श्रम अथवा व्यायाम अनिवार्य है। स्वस्थ व्यक्ति प्रतिदिन इतना श्रम अवश्य करें कि उसके शरीर से पसीना निकलते रहे। जो व्यक्ति पर्याप्त मेहनत नहीं करता उसको व्यायाम, योगासन अथवा प्रातः साॅंय तीन चार कि.मी. पैदल चलना चाहिए।
        पहले महिलाएॅं घर का कार्य स्वयं करती थी इससे बहुत स्वस्थ रहती थी, परन्तु आज के मशीनी युग ने हमारी माता-बहनों का स्वास्थ्य चौपट कर दिया है। यह हमारे सामने प्रत्यक्ष है कि बागडि़यों व पहाड़ी महिलाओं को प्रसव में बहुत कम कष्ट होता है। उनके यहाॅं आराम से घर पर ही बच्चे पैदा हो जाते हैं क्योंकि वो मेहनत बहुत करती हैं।
         चीन के लोग स्वस्थ व ताकतवर होते हैं क्योंकि वो साइकिलों का प्रयोग खूब करते हैं।
        शारीरिक श्रम व्यक्ति अपनी सामर्थ्य के अनुसार करें। यदि रोगी व दुर्बल व्यक्ति अधिक मेहनत कर लेगा तो उसे लाभ के स्थान पर हानि भी हो सकती है। इस स्थिति में पैदल चलना बहुत लाभप्रद रहता है।
      समाज में कुछ अच्छी परिपाटियाॅं अवश्य चलें। जैसे प्रातः अथवा सायं पूरा परिवार मिलकर स्वयं लघु वाटिका चलाए कुछ फल, फूल, सब्जियाॅं उगाए। इससे परिवार को अच्छी सब्जियाॅं मिलेंगी व शारीरिक श्रम भी होगा।
3.  उचित दिनचर्या
       प्रातःकाल ब्रह्म मुहुर्त में उठना व रात्रि में सही समय पर सोना दीर्ध जीवन के लिए अनिवार्य है। रात्रि 9 बजे के उपरान्त कफ का समय प्रारम्भ होता है उस समय जो शयन करते हैं उनके शरीर की टूट-फूट की मरम्मत अच्छी हो जाती है व शरीर मजबूत बनता है। प्रातः चार बजे के उपरान्त वात का समय होता है। उस समय जो सोता है वायु विकारों की चपेट में आने की सम्भावना बढ़ जाती है। युवाओं के लिए छः से आठ घण्टे की नींद व बच्चों के लिए आठ से दस घण्टे की नींद लेना अच्छा रहता है।
            सूर्योदय से पूर्व शीतल जल से स्नान करने का प्रयास करें। यदि शरीर कमजोर है तो हल्का कुनकुना (Luke Warm) अथवा गर्म पानी में स्नान करें। शीतल जल का स्नान उत्तम स्वास्थ्य प्रदान करता है। रात्रि में पेट में जो गर्मी बनती है वह इस स्नान से दूर हो जाती है। अन्यथा सूर्य निकलने पर वह गर्मी बढ़कर पाचन सम्बन्धित विकारों को जन्म देती हैं।
        इसी प्रकार दो समय भोजन अच्छा होता है। प्रातः दस ग्यारह बजे व सायं छः सात बजे। परन्तु आवश्यकतानुसार तीन बार भी भोजन किया जा सकता है।
          उचित समय पर उचित काम अर्थात् नियमित व संयमित दिनचर्या अच्छे स्वास्थ्य के लिए बहुत आवश्यक हैं।
 4. भोजन की प्रकृति व आपूर्ति
            बच्चों के लिए भोजन में कई नियम नहीं रखने चाहिए। जब इच्छा हो खाएॅं। युवाओं के पौष्टिक भोजन नियमानुसार करना चाहिए व प्रौढ़ भोजन सन्तुलित करें।
       1. भोजन का जरूरत से ज्यादा पकाएॅं नहीं।
       2. रोटी के लिए मोटा प्रयोग करें यह आॅंतों में नहीं चिपकेगा। मैदा अथवा         बारीक आटा आॅंतों में चिपक कर सड़ता है जिससे आॅंतों के संक्रमण          (इन्फेक्शन) का खतरा बढ़ जाता है।
      3. भोजन में अम्लीय पदार्थों की मात्रा कम रखें
      4. साबूत दालें भिगोकर अंकुरित कर खाएॅं
      5. भोजन शान्त मन से चबचबा कर करें
      6. भोजन के समय कोई अन्य काम जैसे पुस्तक पढ़ना, टीवी देखना न करें।
      7. भोजन के साथ जल का सेवन न करें।
     8. प्रातःकाल थोड़ा भारी भोजन कर सकते हैं परन्तु सायंकाल भोजन हल्का करें। भोजन का पाचन सूर्य पर निर्भर करता है। सूर्य की ऊष्मा से नाभिचक्र अधिक सक्रिय होता है। भोजन पचाने में लगी अग्नि को जठराग्नि कहा जाता है जिसका नियंत्रण नाभि चक्र से होता है। जिनका नाभि चक्र सुस्त हो जाता है, कितना भी चूर्ण चटनी खा लें भोजन ठीक से नहीं पच पाता। गायत्री का देवता सविता (सूर्य) है अतः नाभि चक्र को मजबूती के लिए गायत्री मंत्र का आधा घण्टा जप अवश्य करें।
     9. भोजन के विषय में कहा जाता है - हितभुक, ऋतुभुक मितभुक अर्थात वह भोजन करें जो हितकारी हो।

    जैसे दूध के साथ मूली व दही के साथ खीर लेना अहितकारी है परन्तु केले के साथ छोटी इलाइची एवं चावल के साथ नारियल की गिरी लाभप्रद है इसी प्रकार भोजन ऋतु के अनुकूल हो (ऋतुभुक) उदाहरण के लिए ग्रीष्म ऋतु में गेहूॅं के साथ जौ लाभप्रद रहता है क्योंकि जौ की प्रकृति शीतल होती है परन्तु वर्षा ऋतु में गेहूॅं के साथ चना पिसवाना आवश्यक है वर्षा ऋतु में वात कुपित होता है जिसको रोकने के लिए चना बहुत लाभप्रद रहता है।

to be continued
Read my book Way to Healthy Life



स्वस्थ बनें युवा, सशक्त बने राष्ट्र

कामकाजी युवाओं की सेहत पर नजर रखने वाले देश के एकमात्र संस्थान नेशनल इन्स्टीट्यूट आॅफ आॅक्युपेशनल हेल्थकी रिपोर्ट के अनुसार - बीते पाॅंच साल में युवाओं की कार्यक्षमता पर प्रतिकूल असर पड़ा है। संस्थान के पाॅंच प्रमुख शहरों पर किए गए अध्ययन में मेट्रो शहरों में काम करने वाले युवा तनाव, अनिद्रा, डायबिटीज और मोटापे का शिकार पाए गए हैं, जिसकी वजह अनियमित दिनचर्या और बेतरतीब खान-पान को बताया गया है।
            देश में 31.2 प्रतिशत कामकाजी युवा किसी न किसी तरह के दर्द से परेशान हैं, जिसमें माइग्रेन प्रमुख है। 65 प्रतिशत युवावर्ग दर्द के कारण छह से आठ घंटे की सामान्य नींद भी नहीं ले पाता। 49 प्रतिशत युवाओं पर लगातार दर्द की वजह से मानसिक स्वास्थ्य पर असर हो रहा है और 13 प्रतिशत युवाओं को क्राॅनिक दर्द की  वजह से नौकरी  तक छोड़नी पड़ी है। भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद् ने मानसिक स्वास्थ्य शोध के अंतर्गत हृदय की बीमारियों पर अध्ययन किया, जिसमें युवाओं में हाईपरटेंशन अथवा हाई ब्लडप्रेशर प्रमुख रूप से सामने आए। वर्ष 2001 से 2011 के बीच किए गए अध्ययन में पाया गया कि 30 से 45 साल का 36 प्रतिशत कामकाजी युवावर्ग हाई ब्लडप्रेशर से ग्रस्त है।

            अभी हाल ही में 30 अप्रैल 2014 के दिन विश्व स्वास्थ्य संगठन ने दिल्ली में ऐंटीबाॅयोटिक रेजिस्टेन्स पर 115 देशों की रिपोर्ट जारी की। इस अध्ययन में भारत सहित कई प्रमुख देशों में डायरिया, मलेरिया, निमोनिया और हेपेटाइसिस-बी आदि के कारक-वायरस के खिलाफ दवाओं का असर खत्तम पाया गया। इसका अर्थ यह हुआ कि बीमारियों के इलाज के लिए प्रयुक्त की जाने वाली दवाओं का असर अब कम होता जा रहा है। इस बारे में ऐंटीबाॅयोटिक स्टीवर्डशिप नेटवर्क इन इंडिया के विशेषज्ञों का कहना है कि युवाओं के रहन-सहन व खान-पान की अस्वास्थ्यकर आदतों के साथ ऐंटीबाॅयोटिक दवाओं का गलत इस्तेमाल दवाओं के असर को कम कर रहा है। एशियाई देशों की जारी रिपोर्ट में डायरिया के कारक-ई-कोलाई पर दवाओं के असर को खत्तम बताया गया है, यानी ऐसे संक्रमण के लिए अब नई दवाओं को जारी करना होगा, जो रोगों पर बेहतर असर दिखा सकें।

ज्योतिषशास्त्रीयों का कथन (अवतारी चेतना)

प्रोफेसर कीरोरू
            वे इंगलैंड के सबसे बड़े ज्योतिषों और सामुद्रिक शास्त्र के आचार्य थे। व्यक्ति, समुदाय तथा राष्ट्र के संबंध में उन्होंने ऐसे कथन कहे हैं, जो उस वक्त संभव नहीं थे, मगर समय आने पर सत्य सिद्ध हुए।
            इ.स. 1943 में उन्होंने कहा था कि इंग्लैंड भारत को स्वतंत्र कर देगा मगर कौमी दंगलों से भारत बहुत नुक्सान उठाएगा। किन्तु भारत का सूर्य बलवान है और कुम्भ राशि में है, इसलिए उसका अभ्युदय संसार की कोई ताकत रोक नहीं सकेगी। इसके उपरान्त इस देश में विशुद्ध धर्मावलम्बी, नीतियुक्त एक सशक्त और प्रखर व्यक्ति का जन्म होगा, उसकी आध्यात्मिक ताकत दुनिया की तमाम भौतिक ताकतों से ज्यादा होगी। बृहस्पति का योग होने से उसकी ज्ञानक्रान्ति का असर सारी दुनिया पर होगा। दुनिया उस ज्ञान को ग्रहण करेगी और समुन्नत होगी।
श्री रामन स्वामी अय्यर
            दक्षिण भारत के प्रख्यात संत और भविष्यवेत्ता श्री रामन स्वामी अय्यर का निष्कलंक अवतार सम्बन्धी भविष्यकथन बिल्कुल स्पष्ट है। वे लिखते हैं कि कल्कि न तो अश्व पर बैठ कर आएगा और न तलवार लेकर आएगा। ये गूढ और रहस्यमय भाषा में लिखे गए सूत्र हैं। अश्वका अर्थ होता है शक्ति का प्रतीक। उसके ऊपर कल्कि सवारी करेगा। इसका अर्थ है शक्ति उसकी इच्छा अनुसार कार्य करेगी। वह इतिहास का सबसे शक्तिशाली व्यक्ति होगा। यह शक्त् िहै - चेतना की शक्ति। तलवार मस्तक काटने के लिए नहीं, किन्तु मस्तिष्क व्याप्त कुविचार दूर करने वाली सद्बुद्धि रूपी तलवार।
            हिमालय महेन्द्र पर्वत पर तप करने वाले भगवान परशुराम उनके गुरु होंगे। वे लिखते हैं कि कल्कि का जन्म मथुरा के नजदीक संबल गाॅंव में होगा। यह महान गायत्री उपासक और सावित्री तत्त्व का ज्ञाता होगा। दुष्ट विचारों को सद्विचारों से काटने की कला में अधिक प्रवीण होगा। अब तक विश्व में जो अन्धश्रद्धाएॅं एवं गलत मान्यताओं की जाल फैली-फैलाई हुई है, वह दुर कर करके सच मान्यताएॅं स्थापित करने में मात्र वह शक्तिशाली होगा। उसके विचारों को लोग अनुसरण करेंगे।
            वह गृहस्थ होगा। उसकी सम्पत्ति लोक कल्याण के लिए देगा। वह एक विशाल संगठन बनाएगा, जो उनके विचारों को समग्र विश्व में फैलाएगा। भारतवर्ष अत्यधिक उन्नति करेगा। उसका प्रभाव रूस और अमेरिका पर पड़ेगा। ये दोनों देश भारत के वैभव के सामने तुच्छ बन जाएॅंगे।
           
स्वामी असीमानन्द

            भृगु संहिता के आधार पर स्वामी असीमानन्दने लिखा है कि ‘‘इस समय संसार का उद्धार करने वाला चैबीसवाॅं अवतार हो चुका है। वह भगवान राम और कृष्ण की तरह सावित्री शक्ति का उपासक और भगवान बुद्ध की तरह सहस्त्रार चक्र का महान सिद्ध योगी होगा। वह अपने तपोबल से अनेक रोगियों को अच्छे कर देगा और अनेक दुःखियों के दुःख दूर करेगा। लोगों का बड़ा समुदाय उसके सेवाकार्य में जुड़ता चला जाएगा। वे सब भारतवर्ष को एक सांस्कृतिक सूत्र में पिरोने में सफल होंगे। इस क्रान्ति से भारत की ओर दुनिया के लोग आकर्षित होंगे। उसके बाद दुनिया में नए युग का निर्माण तेज गति से होगा। आंतरिक संघर्ष में दुनिया की आबादी का बड़ा भाग नष्ट होगा, जो नई समझदारी करने में सहायक होगा।

गुरु का चयन व आवश्यकता Part-2

  एक सही सम्बन्ध स्थापित करना बहुत कुछ गुरु की शक्ति एवं योग्यता पर निर्भर रहता है, जिसके लिये उसमें उच्चकोटि की क्षमता का होना आवश्यक है। एक बार का स्थापित सही सम्बन्ध तब तक बना रहेगा जब कि शिष्य मोक्ष न प्राप्त कर ले जो ऐसी दशा में इतनी दूर नहीं है कि उसे प्राप्त करने में अनेक जन्मों का समय लगे। वास्तव में यदि कोई शिष्य ऊपर बताये सही ढंग से एक उच्च योग्यता के गुरु द्वारा दीक्षित किया जाता है तो उसके समबन्ध तोड़ने का कभी प्रश्न ही नहीं उठ सकता। लेकिन अपनी स्वार्थसिद्धि के लिये झूठी दीक्षाओं का स्वांग रचने वाले पेशेवर गुरु के लिये यह सदैव चिन्ता का विषय बना रहता है। इसलियेशिष्य को स्थायी रुप से अपने पंजे में रखने के लिये वे दैवी नियम के रुप में यह घोषित करते हैं कि यदि वह कभी गुरु से सम्बन्ध-विच्छेद की बात भी सोचेगा तो उसे नरक की सभी यातनाएँ झेलनी पडेंगी। भोली जनता नेइस विचार मात्र से काँपते हुए कि उनके कहीं ऐसा कार्य न हो जाये तो गुरु को अप्रसन्न कर देइसे शास्त्र-वचन मान लिया। अतः वे उनके सभी अत्याचारों को चुपचाप सहते रहते हैं। मेरा विश्वास है कि हमारे शास्त्रों में इस प्रकार का कोई विधान नहीं है। यह केवल इन धर्म-गुरुओं की गढ़ी हुई चीज है। प्रत्येक प्राणी का मैं यह जन्मसिद्ध अधिकार मानता हूँ कि जब उसे लगे कि उसने कोई गलत गुरु चुन लिया है अथवा गुरु की क्षमता एवं गुणों को पहचानने में गलती की है तो उससे अपना सम्बन्ध-विच्छेद कर ले। उसे इसकी भी स्वतन्त्रता है कि जब कभी उसे यह मालूम हो कि गुरु उसे उसकी वर्तमान उपलब्धियों से ऊपर पहुँचा सकने में असमर्थ है तो वह दूसरा गुरु कर ले। दूसरी ओरऐसी अवस्था में एक सच्चे गुरु को स्वयं चाहिये कि वह अपने शिष्य को दूसरे अधिक पहुँचे हुए एवं योग्यतर गुरु के पास भेज दे जिससे शिष्य की प्रगति में कोई बाधा न पड़े। एक सच्चे एवं निःस्वार्थ गुरु का यही कर्तव्य है। परयदि गुरु स्वार्थवशसम्बन्ध-विच्छेद की प्रार्थना अस्वीकृत कर दे तो शिष्य उससे शीघ्र ही सम्बन्ध-विच्छेद करने तथा दूसरे गुरु की खोज करने के लिये स्वतन्त्र है। ऐसा करने में उसे कोई नैतिक या धार्मिक नियम कभी नहीं रोकता।
            गुरुओं की श्रेणी में वे लोग कुछ आगे बढ़े हुए माने जाते हैं जो शास्त्रों तथा अन्य धर्म-ग्रन्थों से अर्जित अपने ज्ञान के आधार पर शिक्षा या उपदेश देते रहते हैं। उन्होंने संघ और आश्रम बना रखे हैं जहाँ अपने शिष्यों में उनकी स्थिति राजा जैसी होती है। वे बड़ी-बड़ी सभाओं में भाषण देते हैं और विधि-निषेध अर्थात् क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए इत्यादि बतलाते हैं तथा मायाजीवन एवं ब्रह्म समबन्धी प्रश्नों को समझााते है। उनके उच्च विचारों एवं विपुल ज्ञान की प्रशंसा करते हुए लोग हजारों की संख्या में उपदेश सुनने के लिये उनके पास एकत्र होते है। वे उनसे अनेक गूढ़ प्रश्न पूछते हैं। यदि ये गुरु शास्त्रों से अर्जित अपने ज्ञान कोष में से उनको उत्तर दे सकने में समर्थ हो जाते हैं तो उन लोगों के मन में उनके महात्म्य की छाप बैठ जाती है और वे उन्हें महात्मा और गुरु मानने के लिये तैयार हो जाते है। परइस प्रकारउन्होंने उनकी विद्वत्ता का परीक्षण किया न कि उनकी सच्ची योग्यता का। यह भली-भाँति ध्यान में रखना चाहिए कि पाण्डित्य अथवा ज्ञान किसी मनुष्य को पूर्ण नहीं बना सकता। केवल सही अर्थ में साक्षात्कार ही एक सच्चा योगी अथवा सन्त बना सकता है। यह भी सम्भव है कि जिस व्यक्ति ने अपने बाकृ-रुपपाण्डित्य अथवा वक्तृत्व-कला से आपको प्रभावित कर दिया हो वह यथार्थ उपलब्धियों के क्षेत्र में निम्नतम स्तर का हो। अतः ज्ञान एक सच्चे महात्मा अथवा योगी को परखने की कसौटी नहीं। इसी भाँतिएक महात्मा अथवा गुरु की सही जाँच उसके चमत्कार या उसके असाधारण तौर-तरीके से नही, वरन् साक्षात्कार के मार्ग पर केवल उसकी व्यावहारिक उपलब्धियों से ही हो सकती है। महात्मा’ शब्द का प्रचलित अर्थ एक महान व्यक्ति मुझे अधिक उचित नहीं जँचता। मैं महात्मा की परिभाषा एक नगण्यतम पुरुष के रुप में करुँगा अथवा एक सर्वथा उपेक्षित व्यक्ति के रुप में जो बड़प्पनअभिमान एवं अहं की समस्त भावनाओं से परेपूर्ण आत्म-निषेध की अवस्था में स्थायी रुप से स्थित हो।
            कुछ लोगों का विचार है कि ज्ञानसाक्षात्कार की प्रारंभिक अवस्था होने के कारणआवश्यक एवं अपरिहार्य है। मैं इस बात से सहमत नहीं क्योंकि ज्ञान तो केवल मस्तिष्क की एक उपलब्धि हैजबकि साक्षात्कार आत्मा का जागरण है और इसलिए उसकी सीमा से परे है। अध्यात्म-ज्ञान की पुस्तकों में विभिन्न आध्यात्मिक स्तरों पर मन की दशा के सम्बन्ध में हम बहुत कुछ पढ़ते हैं और उनकी जानकारी प्राप्त करते हैं। परन्तु जहाँ यथार्थ उपलब्धियों का प्रश्न आता है हम उनसे अत्यधिक दूर रहते हैं। लोगों से हम इन दशाओं के बारे में बातें कर सकते हैंउनके पक्ष-विपक्ष में तर्क दे सकते हैं और अपने पाण्डित्य की श्रेष्ठता स्थापित कर सकते हैंपर आन्तरिक रुप से हम उनसे सर्वथा अनभिज्ञ हैं। हम गीता पर भाषण और उपदेश सुनते हैंप्रतिदिन नियमित रुप से गीता के कुछ अंशों का पाठ करते हैंउस पर बड़े-बड़े विद्वानों की टीकाएँ पढ़ते हैंलेकिन हमारे ऊपर उसका क्या व्यावहारिक प्रभाव पड़ता हैक्या हममें से कोई कभी गीता में वर्णित दशाओं में से एक को भी व्यावहारिक रुप से प्राप्त कर सकता है? ‘संसार माया है’, ‘मनुष्य ही ब्रह्म है’ इत्यादि शब्दों को वे दोहराते रह सकते हैं किन्तु आन्तरिक रुप से इन शब्दों के अर्थ का उन्हें ज्ञान नहीं। इनमें से कोई अभी अपने भीतर उन अवस्थाओं का विकास न कर पाया जिनका अर्जुन ने श्री कृष्ण से गीता सुनने के पश्चात् किया था । गीता जिस रुप में आज हमारे सामने है वह सचमुच उस ज्ञान की एक व्याख्या मात्र है जो श्री कृष्ण ने महाभारत युद्ध के प्रारम्भ होने के समय अर्जुन को दिया था। गीता में शब्दों द्वारा बताई गई सारी आध्यात्मिक अवस्थाएँ श्रीकृष्ण ने उसके हृदय में वास्तविक रुप में प्रविष्ट करा दी थीं जिसके फलस्वरूप अर्जुन उन अवस्थाओं का अनुभव भीतर-बाहर सब जगह कर रहा था। इस प्रकारएक-एक शब्द जो उसने सुना उसके हृदय में सीधा उतरता चला गया और एक स्थायी प्रभाव उत्पन्न करता गया। गीता के आधुनिक शिक्षकों एवं उपदेशकों का श्रोताओं के मन पर वांछित प्रभाव उत्पन्न करने की असफलता का कारण उनके अन्दर उन आध्यात्मिक अवस्थाओं को प्रविष्ट कराने की शक्ति का अभाव है। गीता में विवेचित मन की विभिन्न दशाएँ वास्तव मेंवे भिन्न अवस्थाएँ हैं जो आध्यात्मिकता के पथ पर चलने वालों की राह में आती हैं। वे स्वतः अन्दर से विकसित होती है। ऊपरी साधनों द्वारा मन की कोई विशिष्ट दशा समय से पूर्व अथवा अपरिपक्क अवस्था में उत्पन्न करना आतंरिक स्थूलता बढ़ाता है जो हमारी प्रगति के लिये हानिकारक है।
            सच्चा गुरु वह नहीं है जो केवल धार्मिक सिद्धान्तों के तथ्यों की व्याख्या कर सके अथवा जो हमें क्या करना या न करना चाहिए का निर्देश दे सके। हममें से लगभग सभी इसके विषय में काफी जानते हैं। एक गुरु से जिस बात की हमें अपेक्षा हैवह है आत्मा को जगाने के लिये सच्ची प्रेरणातथा साक्षात्कार के मार्ग पर उत्तरोत्तर प्रगति के लिये उसकी प्रत्यक्ष सहायता। यदि हम सफलता चाहते हैं तो ऐसे ही व्यक्ति की हमें खोज करनी पडे़गी। अतः स्पष्ट है कि आध्यात्मिकता का पथ-प्रदर्शक चुनते समय हमें उसके पाण्डित्य अथवा चमत्कारों को न देखकर आत्म-साक्षात्कार के क्षेत्र में उसकी व्यावहारिक उपलब्धियाँ देखनी चाहिए। एक व्यक्ति जो स्वयं मुक्त है वही हमें शाश्वत बन्धन से मुक्त करा सकता है। यदि गुरु स्वयं संस्कारमाया अथवा अहंकार के बन्धनों से मुक्त नहीं है तो उसके लिये किसी को उन बन्धनों से मुक्त करा सकना सम्भव नहीं। यदि हम एक खम्बे से बंधे हों और हमारा गुरु दूसरे खम्बे सेतो गुरु के लिये हमें बन्धनमुक्त कर सकना कैसे सम्भव हो सकता हैहमें बन्धन से वही मुक्त कर सकता है जो स्वयं मुक्त हो। लोग अधिकतर इसलिये गुमराह हो जाते हैं कि वे ऐसे अयोग्य गुरु के प्रति आत्म-समर्पण कर देते हैं जिनका मुख्य उद्देश्य कदाचित् निजी लाभ अथवा अपनी महत्ता बढ़ाना मात्र होता है। इसी के कारण वे साधारणतया झूठे दिखावों द्वारा अपनी मर्यादा और प्रतिष्ठा बनाये रखने के लिये आतुर रहते है। किसी अधिक उन्नतिशील अथवा अधिक गुण वाले की श्रेष्ठता स्वीकार कर लेनाउनकी शक्ति और मर्यादा के दंभ के लिये कदाचित् सबसे बड़ी चोट होगी। यह और कुछ नहीं केवल अहंकार का निकृष्ट रुप है। यदि हम ऐसे गुरु के प्रति समर्पण करते हैं तो निश्चय ही हम गुरु के अभिमान की वही भावना ग्रहण कर लेेंगे जो निम्नतम प्रकार की स्थूलता है और जो हमारी आध्यात्मिक उन्नति में अवश्य ही बाधा डालेगी। जब तक यह दोष रहेगामोक्ष कभी सम्भव नहीं है।
          आध्यात्मिकतावास्तव में, मन की एक ऐसी सूक्ष्मतम स्थिति है जिसकी तुलना में प्रत्येक अन्य वस्तु अधिक भारी या स्थूलतर प्रतीत होगी। गुलाब के फूल की मधुर सुगन्ध से उत्पन्न इन्द्रियों की कोमल अनुभूति भी इससे कहीं अधिक भारी है। मैं इसे पूर्ण शान्ति एवं समभाव की स्थिति कह सकता हूँ, जो प्रकृति के पूर्ण सामन्जस्य में हैं। मन की इस स्थिति में सभी इन्द्रियाँ एवं प्रवृत्तियाँ मानों प्रसुप्त अवस्था में होती हैं। उनकी क्रिया स्वतः होती रहती है और मन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। पूर्ण शान्ति इसकी उच्च अवस्थाओं में से एक है यद्यपि असल वस्तु अभी और आगे है जहाँ शान्ति का बोध भी विलीन हो जाता हैक्योंकिशान्ति का बोध भी मन पर अत्यन्त नगण्य ही सहीपर कुछ न कुछ भार तो डालता ही है। जब हम वास्तव में शान्ति के अस्तित्व से भी बेखबर हो जाते हैं तभी वास्तविक अर्थ में भावना के प्रभाव अथवा भार से मुक्त होते है। यह अवस्था विचित्र है यह वस्तुतः न तो आनन्द है और न उसका विपरीत। इस अवस्था की वास्तविक दशा को व्यक्त करने में शब्द असफल हो जाते हैं। ऐसी ही दशा में अन्ततोगत्वा प्राप्त करनी है। इसके लिये वही गुरु सुयोग्य हो सकता है जो स्वयं इस अवस्था में स्थायी रुप से रह रहा हो और जिसमें अभ्यासी के हृदय में अपनी इच्छाशक्ति द्वारा आध्यात्मिक दशाएँ प्रविष्ट कराने तथा वहाँ से उलझनों एवं अड़नचों को हटाने की क्षमता और शक्ति हो। इस स्तर से कम का कोई भी व्यक्ति आध्यात्मिक प्रशिक्षण देने के योग्य नहीं।
(सत्य का उदय --------  श्री राम चन्द्र )