Monday, March 30, 2015

प्रार्थना

हे प्रभु! रोगी एवं पीडि़त मानवता के उद्धार के लिए आप हमें निरोग व दीर्घ जीवन प्रदान करें। हमें वह ज्ञान दे जिससे हम अपने स्वास्थ्य को उत्तम बना सकें व दूसरे बीमार लोगो में भी आशा की नई उम्मीदें जगा सकें। हे प्रभु! यह कार्य करते हुए हमारा सेवा का भाव सदा बना रहे, हममे लालच प्रवेश न करने पाए। हे प्रभु! यह कर्म करते हुए हमारी विनम्रता सदा बनी रहे जिससे हमारे भीतर अहं न आए और हमारा ज्ञान निरन्तर बढ़ता जाए।
            हे प्रभु! यदि हमें थोड़ी बहुत सफलता मिलती है तो हम अपने को बड़ा आदमी न मान बैठे। अपितु हर प्राणी में तेरी सूरत देखकर, नर सेवा-नारायण सेवा मानकर अपने को सौभाग्यशाली समझें। हे प्रभु! हमारे व्यक्तित्व को सदा ऊॅंचा बनाकर रखना जिससे छोटे-बड़े स्वार्थ, संकीर्ण मानसिकता से सदा दूर रहें। हे प्रभु! ऋषियों की आदर्श परम्परा के अनुरूप हम अपना जीवन यापन करें और अपने सांसारिक कत्र्तव्य पूर्ण करके ब्रह्मलोक को प्रयाण करें। हे प्रभु! मात्र आपकी कृपा के बिना, ऊर्जा, मार्गदर्शन, संरक्षण के बिना कुछ भी सम्भव नहीं हैं। इसलिए हे प्रभु!
            ‘नजरों से गिराना ना, चाहे कितनी भी सजा देना
            सदा आपकी आॅंखों के तारे बने रहें व आपकी दिव्य ज्योति सदा हमारे अन्तःकरण को प्रकाशित करती रहे, यही हमारी आपसे विनम्र प्रार्थना है।
            हे देव! स्वस्थ भारत अभियान के बिना युग निर्माण कैसे सम्भव हो पाएगा। स्वामी विवेकानन्द जी ने कहा था कि उन्हें लोहे की माॅंसपेशियों व फौलाद के स्नायु वाले युवकों की आवश्यकता है।
            दृढ़ इच्दा शक्ति व आत्मबल सम्पन्न महामानव बिना श्रेष्ठ स्वास्थ्य के कैसे उत्पन्न् हो सकते हैं। स्वस्थ भारत ही सतयुगी वातावरण व उज्ज्वल भविष्य का आधार है।

            हे भगवन्! अकेला व्यक्ति इस अभियान को कैसे गति दे पाएगा? कुछ दिव्य, समर्पित, प्रतिभावान आत्माएॅं एक साथ जोड़ जिससे हम सब मिलकर इस अभियान को आगे बढ़ाकर तेरी इच्छा पूरी कर सकें।

Thursday, March 26, 2015

दीर्ध व निरोग जीवन के चालीस सूत्र

            
            परिवार में उत्तम स्वास्थ्य हेतु सभी सदस्य निम्न नियमों का पालन करें। ध्यान रहे ये नियम स्वस्थ व्यक्तियों के लिए दिए जा रहे हैं जिससे उनका स्वास्थ्य अक्षुण्ण बना रहे। रोग की परिस्थिति में नियमों में यथासम्भव बदलाव किया जा सकता हैः-
1. प्रातःकाल सूर्योदय से पूर्व अवश्य उठें। उठने का समय 5 बजे के आस-पास रहे।
2. सूर्योदय से पूर्व शीतल जल से स्नान करें। इससे शरीर को बल मिलता है  व पाचन उत्तम बनता है।
3. आटा मोटा पिसवाया जाए व ग्रीष्म )तु में जौ तथा वर्षा तथा शीत )तु में चना मिलवाकर पिसवाएॅं।
4. जितना सम्भव हो जीवित आहार लें। अधिक तला भुना पदार्थ व जंक फूड मृत आहारों की श्रेणी में आते हैं।
5. तीन सफेद विषों का प्रयोग कम से कम करें - सफेद नमक, सफेद चीनी व सफेद मैदा।
6. प्रतिदिन कुछ न कुछ शारीरिक श्रम, व्यायाम अथवा खेलकूद अवश्य करें। इससे माॅंसपेशियाॅं मजबूती बनी रहती है। हृदय तथा आॅंतों की माॅंसपेशिया सुचारु रूप् से काम करती हैं।
7. घर में फ्रिज में कम से कम सामान रखने का प्रयास करें। पुराना बारीक आटा व सब्जी का प्रयोग जोड़ों के दर्द को आमन्त्रित करता है।
8. हफ्ते में एक दिन नमक/चीनी छोड़कर अस्वाद व्रत करें।
9. नींबू की खटाई उपयोगी रहती है। नींबू पानी का सेवन से शरीर स्वस्थ बना रहता है।
10. फल सब्जियों में ।दजपवगपकंदजे पर्याप्त मात्रा में होते हैं। इनका प्रयोग लाभप्रद रहता है।
11. कभी-कभी बादाम व अखरोट का भिगोकर सेवन करते रहें। इससे जोड़ों की ग्रीस अर्थात् ताकत बनी रहती है अखरोट में व्उमहं3होता है जो सेहत के लिए जरुरी है।
12. घर में अथवा आस-पास नीम चढ़ी गिलोय उगाकर रखें व हफ्ते पन्द्रह दिन एक-दो बार प्रातःकाल उबालकर पीते रहें। गिलोय से शरीर स्वस्थ व निरोग रहता है। लीवर सुचारू रूप् से काम करता है।
13. गेहूॅं, चावल थोड़ा पुराना प्रयोग करें।
14. शीत )तु में दो तीन माह ;क्मबमउइमतए श्रंदनंतलए थ्मइतनंतलद्ध  आॅंवले का उपयोग करें। यह बहुत ही उच्च कोटि का स्वास्थ्यवर्धक रसायन है।
15. जल पर्याप्त मात्रा में पिएॅं अन्यथा भ्पही ठच् शिकार हो जाएॅंगे।
16. भोजन करने के पश्चात् एक दम न सोएॅं न दिन में, न रात में।
17. भोजन के उपरान्त वज्रासन में बैठना बहुत लाभकारी होता है।
18. भोजन के पश्चात् दाई साॅंस चलाना अच्छा होता है। इससे जठाराग्नि तीव्र होती है व पाचन में मदद मिलती है।
19. प्रातःकाल सूर्योदय के समय सविता देवता को प्रणाम कर उत्तम स्वास्थ्य की कामना करें व गायत्री मन्त्र पढ़ें। इससे सूर्य स्नान होता है। नस नाडि़यों के रोग जैसे सर्वाइकल आदि नहीं होते।
20. सूर्योदय के समय प्राणवायु सघन होती है। उस समय गहरी-गहरी श्वास लेते हुए टहलें अथवा प्राणायाम खुले में करें। इससे बल में वृद्धि होती है व प्रसन्नता बढ़ती है।
21. भोजन शान्त मन से चबा-चबा कर व स्वाद ले-लेकर करें। यदि भोजन में रस आए तो वह शरीर को लगता है अन्यथा खाया-पीया व बेकार निकल गया तथा पचने में मेहनत और खराब हो गई।
22. पानी सदा बैठकर धीरे-धीरे पिएॅं, एकदम न गटकें।
23. मल-मूत्र का त्याग बैठकर करें व उस समय दाॅंत भींचकर रखें।
24. वस्त्र सदा ढीलें पहने। नाड़े वाले कुर्ते-पजामे सर्वोतम वेश हैं। कसी जीन्स आदि बहुत घातक होती हैं।
25. भूख से थोड़ा कम खाएॅं।
26. जब भी मिठाई खाएॅं, कुल्ला अवश्य करें।
27. दोनों समय ब्रश न करें, एक समय अनामिका ऊॅंगली से सूखा-मंजन या नमक, सरसों का तेल मिला कर करें। इससे मसूड़ों की मालिश होती है।
28. प्रतिदिन मुॅंह में पानी भरकर अथवा मुॅंह फुलाकर जल से नेत्रों को धोएॅं।
29. मंजन के पश्चात् जिह्वा अवश्य साफ करें तथा हलक तक ऊॅंगली ले जाकर गन्दा पानी निकाल दें। इससे पासिलस की शिकायत नहीं होती।
30. घर में तुलसी उगाकर रखें इससे सात्विक ऊर्जा में वृद्धि होती है तथा वास्तु दोष दूर होते हैं। समय-समय पर तुलसी का सेवन करते रहें।
31. भोजन के साथ पानी का प्रयोग कम करें। इससे पाचक अग्नि मन्द होने का भय रहता है।
32. मोबाईल पर लम्बी बातें न करें। यह दिमाग में टयूमर व अन्य व्याधियाॅं उत्पन्न कर सकता है।
33. पैदल चले, साइकिल चलाने से जी न चुराएॅं। अपना काम स्वयं करने का अभ्यास करें।
34. देसी गाय के दूध घी का सेवन करें। देसी गौ का सान्निधय भी बहुत लाभप्रद रहता है।
35. दस-पन्द्रह दिन में एक बार घर में यज्ञ अवश्य करें। अथवा प्रतिदिन घी का दीपक जलाएॅं।
36. इन्द्रिय संयम विशेषकर ब्रह्मचर्य का उचित पालन करें। यह निरोग जीवन के लिए अनिवार्य है। अश्लील मनोरंजन के साधनों का प्रयोग न करें।
37. मच्छर से बचाव के लिए मच्छरदानी सर्वोतम है। दूसरे साधन लम्बे समय प्रयोग से कुछ न कुछ नुक्सान अवश्य करते हैं।
38. ध्यान रहे लम्बे समय तक वासना, ईष्र्या, द्वेष, घृणा, भय, क्रोध के विचार मन में न रहें अन्यथा ये आपका स्नायु तन्त्र ;छमतअवने ैलेजमउद्ध विकृत कर सकते हैं। यह बड़ा ही दर्दनाक होता है न व्यक्ति जीने लायक होता है न मरने लायक।
39. धन ईमानदारी से कमाने का प्रयास करें। सदा सन्मार्ग पर चलने का अभ्यास करें। इससे आत्मबल बढ़ता है।

40. सदा सकारात्मक सोच रखे। यदि आपने किसी का बुरा नहीं सोचते तो आपके साथ बुरा कैसे हो सकता है। यदि आपसे गलतियाॅं हुई हैं तो उनका प्रायश्चित करें। इससे उनका दण्ड बहुत कम हो जाता है। जैसे डाकू वाल्मिकी ने लोगों को लूटा तो सन्त हो जाने पर बेसहारों को सहारा देने वाला आश्रम बनाया।

दो ठोस आहारों के बीच 6 घण्टें का अन्तर रखें। 3 घण्टें से पहले ठोस आहार न लें। अन्यथा अपच होगा जैसे हाण्डी में यदि कोई दाल पकाने के लिए रखी जाए उसके थोड़ी देर बाद दूसरी दाल डाल दी जाए तो यह सब कच्चा पक्का हो जाएगा। बार-बार खाने से भी यह स्थिति उत्पन्न होती है। भोजन के पश्चात् 6 घण्टें से अधिक भूखे न रहें। इससे भी अम्लता इत्यादि बढ़ने का खतरा रहता है।
2. सामान्य परिस्थितियों में जल इतना पीएॅं कि 24 घण्टें में 6 बार मूत्र त्याग हो जाए। मूत्र त्याग करते समय अपने दाॅंत बीच कर रखें।
3. दिन में भोजन के पश्चात् थोड़ी देर विश्राम व सायंकाल लगभग 100-200 कदम अवश्य चलें।
4. घर का निर्माण इस प्रकार करें कि सूर्य का प्रकाश पर्याप्त रहे। अन्धेरे वाले घर में कमचतमेेपवद अथवा जीवनी शक्ति का क्षय अधिक होता है।
5. दीर्घ आयु के लिए भोजन का क्षारीय होना आवश्यक है। क्षार व अम्ल का अनुपात 3ः1 होनी चाहिए। जो लोग अम्लीय भोजन करते हैं उसमें उनको रक्त-विकार अधिक तंग करते हैं। कुछ शोधों के निष्कर्ष यह भी बताते हैं कि भोजन में क्षार तत्व बढ़ाकर हृदय की धमनियों के इसवबांहम भी खोलें जा सकते हैं।
6. यदि व्यक्ति को जुकाम रहता है तो रात्रि में नाक में कड़वे तेल की अथवा गाय के घी की दो बूंदे सोने से पूर्व डालें। इससे जुकाम दूर होता है व नेत्र व मस्तिष्क मजबूत बनते हैं। जिनको जुकाम न हो उनके लिए भी यह प्रयोग उत्तम है।
7. रात्रि में सोने से पूर्व पैर के तलवों पर तेल मलना लाभप्रद रहता है इससे शरीर की नस नाडि़याॅं मजबूत होती हैं।
8. सोने से पूर्व यदि पैरों को ताजे पानी से धो लिया जाए तो नींद बहुत अच्छी आती है।
9. जो लोग पेट से सांस लेते हैं वो शान्त प्रकृति के होते हैं व दीर्ध आयु होते हैं। सांस सदा गहरी लेनी चाहिए। गहरी सांस का अर्थ है कि सांस को नाभि तक लेने का प्रयास करें। इससे नाभि चक्र सक्रिय रहता है। नाभि चक्र की सक्रियता पर ही हमारा पाचन तन्त्र निर्भर है।
10. जिन लोगों को उच्च रक्त चाप की समस्या है यह छोटा से प्रयोग करके देखें। रक्तचाप मापें व नोट करें। फिर श्वास को 2-4 बार नीचे नाभि की तरफ धकेंले। फिर रक्तचाप नापें। रक्तचाप में कुछ न कुछ कमी अवश्य प्रतीत होगी।
11. आयुर्वेद के अनुसार मनुष्य की प्रकृति तीन प्रकार की होती है। वातपितकफ। प्रत्येक व्यक्ति को अपनी प्रकृति को पहचानने का प्रयास अवश्य करना चाहिए। अपनी प्रकृति पहचानने के उपरान्त उसी अनुसार खान-पानरहन-सहन व दवाओं का उपयोग करना चाहिए। उदाहरण के लिए पित्त प्रकृति का व्यक्ति गरम चीजों जैसे लहसुन आदि का प्रयोग बिल्कुल न करे। अधिक जानकारी के लिए स्वस्थ भारत नामक पुस्तक पढ़ें।
12. जब भी व्यक्ति को कोई रोग हो तो उसको हल्के उपवास व वैकल्पिक चिकित्सा प(ति का सहारा लेकर दूर करने का प्रयास करें। आज समाज में एक गलत परम्परा बन गई है जैसे ही व्यक्ति को छोटी-मोटी कोई बीमारी होती है तुरन्त ंससवचंजीपब कवबजवते के पास इलाज के लिए दौड़ते हैं क्योंकि ऐलोपैथी दवाओं के ेपकम.मििमबजे सबसे अधिक हैं। अतः इनका उपयोग विवश्ता में करना चाहिए। उदाहरण के लिए यदि व्यक्ति का रक्तचाप बढ़ा हुआ है तो नमक करें। आॅंवलाब्रह्मी अथवा सर्पगन्धा का प्रयोग करके उसको नियन्त्रित करे। तुरन्त अंग्रेजी दवाईयों की ओर न दौड़ें।
13. 40 वर्ष की आयु के उपरान्त वसा ;थ्ंजेद्धप्रोटीन का उपयोग सीमित रखें। नमक व चीनी भी कम लें। मीठे की पूर्ति के लिए फलों का उपयोग करें।
14. जो लोग शारीरिक श्रम से वंचित रहते हैं वो आसनप्राणायाम एवं पैदल चलने का अभ्यास अवश्य करें। आरामपरक जीवन जीने से शरीर के महत्वपूर्ण अंग जैसे लीवरयकृतअग्नाश्य ;चंदबतमंेद्ध एवं हृदय धीरे-धीरे करके कमजोर होते चले जाते हैं।
15. जो लोग शारीरिक श्रम कम करते हैं परन्तु मीठा खाने के शौकीन हैं उनको मधुमेह रोग होने का खतरा बना रहता है। क्योंकि उनके रक्त की शर्करा का उपयोग न होने के कारण ख्ंदबतपंे पर अधिक दबाव पड़ता है। अतः उतना खाया जाए जितना आवश्यक है।


स्वस्थ भारत का अभियान
सारी खुशियों का आधारसबकी उन्नति का आधार।
देवात्मा हिमालय का संकल्प यहस्वस्थ भारत का विचार।।

स्वागत है उन सबकाजो इसको जीवन में अपनाएॅं।
स्वयं भी सुख शान्ति पाएॅंऔरों को भी खुशहाल बनाएॅं।।

जीव का यह प्रथम धर्मस्वस्थ शरीर का निर्माण करे।
बहुमूल्य यह मानव जीवनयो हीं रोते कल्पते फिरें।
    
आया है फिर से धरा परसबकी खुशियों का पैगाम।
दर्दकमजोरीनिराशा को दूर करबनेगा भारत बल शक्ति का धाम।।

होगा शरीर हष्ट-पुष्टबल वीर्य का निर्माण।
कैसा भी हो घातक रोगमिल जाएगा उसका निदान।।

स्वस्थ भारत के इस अभियान कोशत-शत मेरा प्रणाम।


मिलकर हम सब पूर्ण करेंगेसर्वोपरि यह पुण्य काम।।

आत्म निर्माण


            हे युग पुरुष! तेरा आवाहन मुझे झकझोर रहा है। तेरी गीता मुझे रणक्षेत्र में कूदने के लिए विकल का रही है। परन्तु यह राह बड़ी कठिन प्रतीत होती है। काॅंटों भरे रास्ते पर चलने के समान दुष्कर भी लगती है! ऐसी विषम परिस्थिति में कैसे आगे बढ़ूॅं। इसके लिए सर्वप्रथम आत्म-निर्माण करना होगा। आत्म-निर्माण के द्वारा ही लौह-पुरुष समाज में खरादे जाएॅंगे।
            सर्वप्रथम हमें एक ऐसा मानस बनाना होगा जो कठिन व विपरीत परिस्थितियों में भी उद्विग्न न हों, शान्त रह सके, प्रभु पर विश्वास कर सके कि ईश्वर कृपा से परिस्थितियों से हम अवश्य विजयी होंगे ऐसा विश्वास जगाना होगा। क्योंकि सत्यमेव जयतेके अनुसार जीत सदा सच्चाई की ही होती आई है। हम धर्म के लिए, सत्य के लिए, न्याय के लिए संघर्ष करने हेतु आगे बढ़ रहे हैं। विजय श्री सदा वहीं होती है जहाॅं श्रीकृष्ण होते हैं। हम तो योग में स्थिति होकर ही कर्म कर रहे हैं अर्थात् परमात्मा की प्रेरणा से कर्म कर रहे हैं व कर्मफल भी उन्हीं को अर्पित है।
            दूसरे हमें उत्तम स्वास्थ्य के लिए आवश्यक ज्ञान अनिवार्य हैं। क्योंकि कठिन संघर्षों में टूट-फूट अवश्य होती है। यदि हमें स्वास्थ्य सुधार के उपाय पता है तो रोगी होने पर अल्प साधना में शीघ्र ही स्वस्थ हुआ जा सकता है।
            तीसरा हमें समान मानसिकता के लोगों का एक संघ लेकर चलना है। बिना संघ शक्ति के किसी भी अभियान को हम गति नहीं दे पाएॅंगे। प्रारम्भ में तो एकला चलो रेकी नीति अपनानी पड़ती है परन्तु सफलता के लिए संगठन शक्ति बहुत आवश्यक है।

जाग्रत आत्माओं से आवाह्न

वैदिक काल में व्यक्ति का जीवन बहुत सरल था। शिष्य में श्रद्धा बहुत होती थी व गुरु का व्यक्तित्व बहुत ऊॅंचा होता था। गुरु सूत्रों द्वारा शिष्य को मार्गदर्शन करते थे। शिष्य उन सूत्रों को याद करके जीवन में अपनाने का प्रयास करते थे। आज के युग की समस्या है न शिष्य श्रद्धावान है न ही गुरु प्रज्ञावान।
            क ोई भी विचारधारा लें सैंकड़ों तरह के वाद-विवाद लोग करते हैं व किसी परिणाम पर नहीं पहुॅंच पाते। उदाहरण के लिए ब्रह्मचर्य के महत्व को ही लीजिए। लोग दुनिया भर के लाभ-हानि इसके गिना देंगे। इसी प्रकार मोबाईल का अन्धाधुन्ध प्रयोग व्यक्ति को अपने विनाश के लिए बहुत सारे गड्डे खोद डाले हैं जो घुन की तरह हमारे समाज को भीतर ही भीतर खोखला किए दे रहे हैं। जनता अपनी मस्ती में मस्त है व सरकार अपनी कुर्सी के नशे में मस्त है। धर्माधिकारी अपने पैर पूजवाने व पैसा बटोरने में लगे हैं तो प्रबुद्ध वर्ग अपनी गाड़ी व बंगले चमकाने में लगे हैं।

            ऐसी कठिन परिस्थिति में स्वस्थ भारतका सपना कैसे साकार हो पाएगा। यह एक गम्भीर समस्या है। व्यक्ति की सोच भोग व स्वार्थ यही तक सीमित होकर रह गई है। कौन हैं जो स्वस्थ भारतका निर्माण करने के लिए देवशक्तियों का आगे बढ़कर सहयोग करेंगे।

युग सेना का गठन - चैत्र नवरात्रि 2015 पर विशेष आहवान


नव निर्माण में गायत्री परिवार व संघ ;त्ैैद्ध की भूमिका
            वैसे तो इस समय अपने देश में इस समय बहुत सी संस्थाएॅं अच्छे कार्य कर रही हैं। परन्तु यदि गहन विश्लेषण किया जाए तो दो संस्थाएॅं ऐसी हैं जिन पर भारत माता की आस लगी है वो हैं-
            1. गायत्री परिवार         2. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ
            इन दोनों संस्थाओं की पहली विशेषता यह है कि ये दोनों ही राष्ट्रीय स्तर की संस्थाएॅं हैं जिनका व्यापक जनाधार है। दूसरी विशेषता यह है कि ये दोनों ही निज के स्वार्थों से ऊपर उठकर एक बहुत ही महान लक्ष्य लेकर चल रही हैं। गायत्री परिवार सांस्कृतिक व नैतिक उत्थान के लिए तो संघ राष्ट्र निर्माण के लिए समर्पित है। अपने देश में कुछ का उद्देश्य है व्यापार कर धन कमाना तो कुछ का उद्देश्य है जगह-जगह जमीन लेकर डाल देना। रविवार को एकाध घण्टा कुछ उस जमीन पर करना बाकि समय वह जमीन बिना किसी उपयोग के पड़ी रहती है। अनेक संस्थाएॅं तो ऐसी हैं जिनके संस्थापक मर गए तो कोई सम्भालने वाला नहीं और उनकी जमीने झगड़ों के अड्डे बन गए हैं। भारत सरकार भी इस दिशा में कोई सार्थक कदम नहीं उठा रही है।
            सौभाग्य से गायत्री परिवार व संघ अभी दोनों ही इस प्रकार के कलंकों से मुक्त हैं। गायत्री परिवार के संचालक श्रीराम आचार्यजी ने अपने प्रचण्ड तप के बल पर एक बहुत ही ऊॅंची परिकल्पना की थी जिसको 21वीं सदी उज्ज्वल भविष्य के नाम से जाना जाता है। जिसको विचारकर किसी भी संवेदनशील आत्मा के रोंगटे खड़े होने लगते हैं और इस महानयज्ञ में अपनी आहुति देने के लिए मन मचलने लगता है। जो व्यक्ति निज की वासनाओं व तृष्णाओं में जीवन पथ भटक गए हैं, धन-माया के पचड़ों में उलझे हैं उनके पर तो गोस्वामी जी की यह उक्ति ही लागू होती है।
            ‘‘कामहिं क्रोधहि हरि कथा, उसर बीज भए फन जथा।’’
            अर्थात् कामुक व्यक्ति को हरि कथा बाचना बंजर जमीन पर बीज बोने के समान है।
            अन्यथा जो भी आत्मा थोड़ी जाग्रत है व दैवकृपा से जिसका विवेक बचा है वह युग निर्माण आन्दोलन में भाग लिए बिना नहीं रह सकती है। जैसे स्वतन्त्रता आन्दोलन जब चल रहा था तो प्रत्येक भारतवासी इस महान यज्ञ में कुद पड़ा था। चाहे नरम दल हो चाहे गरम दल दोनों ने अपनी महान् भूमिका निभाई व देशवासियों ने अंग्रेजों को भारत छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया। इतिहास में महात्मा गाॅंधी, वीर सावरकर, नेता जी सुभाष चन्द्र बोस, सरदार भगत सिंह जैसे हजारों नाम अविस्मरणीय हो गए।
            आज पुनः अपने देश को भौतिकवाद व भोगवाद की आॅंधी से बचाने के लिए एक युग सेना के गठन की आवश्यकता आन पड़ी है। देश का नैतिक, चारित्रिक व सांस्कृतिक पतन इतनी तेजी से हो रहा है यदि इसको न रोका गया तो इस देश का हवा, पानी, मिट्टी, अन्न, वस्त्र सब कुछ विषाक्त हो जाएगा।
            ऐसे युग सैनिक चाहिएॅं जो अपनी संस्कृति, अपने राष्ट्र से अपार प्रेम करते हों। जो स्वार्थ के लिए नहीं अपितु इस माटी के लिए तप, त्याग, बलिदान का पथ चुनने का साहस रखते हों। भारत माॅं बड़ी आशा से युग सैनिकों की बाट जो रही है। )षियों की इस भूमि का रक्त ठण्डा कैसे हो सकता है। वीर अभिमन्यु, वीर हकीकत राय, सरदार जोरावर व फतेह सिंह जी, सरदार भगत सिंह जी का लहू आज भी हमारी रगों में दौड़ रहा है। इतिहास अपने आप को दोहराने जा रहा है। क्या दुर्गा भाभी, लक्ष्मी बाई, भागिनी निवेदिता का पुनर्जन्म नहीं हुआ है? यह दिव्य आत्माएॅं कहाॅं खो गई हैं? कहाॅं सो गई हैं? भारत माॅं की चीख-पुकार को क्यों नहीं सुन पा रही हैं? अभी भोगवाद की आॅंधी ने भारत के युवा को इतना संवेदनहीन नहीं किया है कि भारत माॅं को सवा लाख युग सैनिक, आत्म बलिदानी स्तर की आत्माएॅं न मिल पाएॅं। मणियों का यह हार भारत माॅं को अर्पित करने का समय आ गया है। देखना है कौन है वो जो इस हार के मोती बनने का सोभाग्य प्राप्त करते हैं। देखना है कौन हैं वो जो वासना, तृष्णा, अहंता के दल दल से उबरकर इस देश व धरती का नया इतिहास रचने का सौभाग्य प्राप्त करते हैं। कौन हैं वो इस दुखित, पीडि़त मानवता के परित्राण के लिए अपना जीवनदान देने के लिए तैयार हैं। माॅं भारती अपने नेत्रों में आॅंसू भरकर अपने इन महान सपूतों को गले लगाने के लिए बुरी तरह प्रतीक्षा कर रही है। आइए इस स्वर्णिम अवसर को अपने हाथ से न जाने दें, भोगवाद की आॅंधी के विरूद्ध सीना तान कर खड़े हो जाएॅं ऐसे सवा लाख सपूतों को मेरा सलाम।
जय भारत जय हिन्द
लेखक विश्वामित्र राजेश
            ‘‘ज्ञान साधना अब बहने लगी है।
            आसुरी शक्तियाॅं अब जलने लगी हैं।
            युग के विश्वामित्रों में प्राण चेतना भरने लगी है।’’
            लेखक ने यह लेख चैत्र नवरात्रि - गुरुवार, 26 मार्च 2015 को प्रातःकाल 4 बजे एक विशेष मानसिक दशा में लिखा है कृपा )षियों के लिए क्षमा करें।
            ‘‘उठो सुनो युग का आवाहन, कर लो प्रभु का काज।

            अपना देश बनेगा, सारी दुनिया का सरताज।।’’

Sunday, March 22, 2015

धर्मो रक्षति रक्षितः

धर्मो रक्षति रक्षितः
            बात सन् 2005 की है, मेरा मन अपने काॅलेज में व Academics में नहीं लगता था। यह मन में घूमता रहता था कि इस नौकरी को कब तक ढोना पड़ेगा। काश किसी तरह इससे छुट्टी पाकर शान्तिकुॅंज जाकर समयदान दें व पूर्ण रूप् से गुरुदेव के कार्य के लिए समर्पित हो जाएॅं। इसके लिए कई बार असफल प्रयास भी किए गए। सन् 1995 में अर्ध पूर्णाहुति के लिए एक वर्ष का समयदान दिया था। सन् 2004 में पुनः आदरणाीय डूा. प्रणव पण्ड्या जी को तीन वर्ष का समयदान नोट कराया। उनका आदेश मिला कि अभी बच्चे छोटे हैं थोड़ा संभल जाए तब इधर आना। यदि आपकी सेवाओं की आवश्यकता होगी तो बुला लिया जाएगा। उस समय मेरा बेटा मा. एक वर्ष का था। दोनों बच्चे काफी बीमार भी रहते थै। तीन वर्ष की  बड़ी बेटी को बार-बार न्यूमोनिया का आक्रमण होता था व बेटे को एसिलाइटस व गले में इंफेक्शन के कारण बुखार आता रहता था। डाॅ. साहब में सदा अपने गुरु की छवि ही देखने का प्रयास किया गया। उनका निर्देश सिर माथे लेकर भारी मन से शान्तिकुॅंज से हमारा परिवार विदा हुआ।
            एक दिन गुरुदेव पर बड़ी झल्लाहट उठी कि वहाॅं भागते है तो लौटा देते हो और यहाॅं नौकरी में मन नहीं लगता। करें तो क्या करें? गुरुदेव का निर्देश प्राप्त हुआ आप अपने Academics में ध्यान दो। M.Tech. पूरी करो फिर Ph.D. करो। इससे आपकी Teaching में सुधार आएगा व आपका मन लगेगा। जब तक आप अच्छे से बच्चों को पढ़ाएगें नहीं आपके भीतर एक ग्लानि का भाव बना रहेगा व आपका ब्रह्मवर्चस नहीं उभर पाएगा। आपके किसी क्षेत्र में सफलता नहीं मिलेगी। मैंने गुरुदेव से पूछा फिर मिशन के प्रति समर्पण का क्या होगा जिसके लिए मैं चैदह वर्षों से जी-तोड़ परिश्रम कर रहा हूॅं व सतयुग की वापसी के दिन-रात सपने लेता रहता हूॅं। गुरुदेव ने आश्वासन दिया कि जहाॅं आवश्यकता लगेगी वहाॅं नियोजन हो जाएगा परन्तु पहले M.Tech., Ph.D. को मेरा कार्य समझकर पूरा किया जाए।
            मैंने राहत की साॅंस ली कि मुझे एक दिशा तो मिली। परन्तु अपने मन को मिशन से हटाकर दूसरी दिशा में मोड़ना मेरे लिए काफी कठिन कार्य था। किसी प्रकार मैंने M.Tech. पूरी कर सन् 2007 में Ph.D. में प्रवेश लिया। किस प्रकार Ph.D. का कार्य आगे बढ़ाया जाए यह मेरे लिए चुनौति भरा कार्य था। मैंने इधर-उधर से ध्यान हटाकर Ph.D. करने के लिए अपना आधार तैयार किया। उस समय लोग मुझ पर हॅंसते थे कि स्वामी जी (मेरा काॅलेज का निक नेम) भी Ph.D. करने चले हैं उन्हें नहीं मालूम कि इसके लिए छः-सात घण्टा प्रतिदिन पाॅंच वर्ष मेहनत करनी होती है। धीरे-धीरे करके मेरा कम्प्यूटर पर बैठने का अभ्यास बनने लगा। मैं प्रतिदिन रात्रि ढ़ाई तीन बजे से छः बजे तक तीन घण्टे अवश्य निकालता। तत्पश्चात् यदि मेरी class दिन के First Half में होती तो Second Half में तीन घण्टे निकालता और यदि Second Half में होती तो First Hlaf में तीन घण्टें निकालता। इस प्रकार छः घण्टे मेरे नियमित Ph.D. के लिए निकल जाते।
            इस पर भी मेरे लिए Ph.D. करना ऐसा था जैसे किसी को दिशा बोध न हो व समुद्र में फेंक दिया जाए। कैसे किनारे पर व्यक्ति पहुॅंचे, कैसे मार्ग बनाए। मैंने भगवान से प्रार्थना कर विभिन्न शोध पत्रों के पढ़ना प्रारम्भ किया। मैंने भगवान से कहा वही शोध प्त्र मेरे सामने आएॅं जिनसे मुझे उचित लाभ हो। तीसरे वर्ष मैंने अपना शोध प्त्र लिखा व एक Journal में भेजा। सौभाग्य से वह स्वीकृत हो गया इससे मेरा उत्साह बढ़ गया व मैं 12 घण्टें प्रतिदिन Ph.D. के लिए लगाने लगा। चैथे वर्ष में मैंने लगभग दस Research Papers व उन्हें विभिन्न Journals में भेजा। मेरे उत्साह की सीमा न रही जब मेरे तीन पेपर्स पाॅंच माह के अन्दर अच्छे Journals में छप गए। अब मैंने पाॅंचवें वर्ष में Ph.D. Thesis लिखना प्रारम्भ किया। सौभाग्य से मुझे दो विद्यार्थी गौरव लिखा व योगेश सोनी ऐसे मिले जिन्होंने मेरे Ph.D. के कर्म में तत्व सहयोग दिया कि जिसके आजीवन भुलाया नहीं जा सकता।
            मार्च 2007 में मेरा Ph.D. में पंजीकरण हुआ था, सितम्बर 12 में मेरा Thesis Writing लगभग पूरा हो गया। इन्हीं दिनों जयगाॅंव से श्री अरविन्द शाह का फोन आता है कि उनको सनातन धर्म का प्रसादपुस्तक की 100 प्रतियाॅं चाहिए। जयगाॅंव में उनकी एक पुस्तक की फोटोस्टेट पहुॅंची है व उस फोटोस्टेट से अनेक प्रतियाॅं बन रही हैं। मैंने उन्हें कहा कि उस पुस्तक की छपाई मैं बन्द कर चुका हूॅं जो भी पाॅंच-सात काॅपी हैं उन्हें भिजवा दूॅंगा। मेरे कथन से उन्हें बड़ी निराशा हुई व उन्होंने पुस्तकें पुनः छपवाने का आग्रह किया। यहाॅं तक कि वो कहने लगे कि इसे वो जयगाॅंव में ही छपवा लेंगे। इस पर मैंने उन्हें कहा कि यह कठिन कार्य है वो केवल पहली पुस्तक की गलतियों का सुधार कर दें। छपवा हम कुरुक्षेत्र में ही देंगे। इन्हीं दिनों कम्प्यूटर पर कार्य अधिक करने के कारण मेरा सरवाईकल बढ़ता जा रहा था व मेरी कमर व गर्दन में अधिक पीड़ा रहने लगी। सोभाग्य से मुझे एक हिन्दी टाइपिस्ट मिल गया जो साॅंयकाल दो घण्टा प्रतिदिन मेरे Office में आने लगा। दिन में अरविन्द जी फोन पर योगेश को Corrections कराते, योगेश टाईपिस्ट से शाम को सुधार करा लेते। इससे मेरा Ph.D. कार्य व पुस्तक प्रकाशन के कार्य में तेजी आई। परन्तु मेरे स्वास्थ्य में लगातार गिरावट आ रही थी जो मेरे लिए चिन्ता का विषय बन रहा था। सौभाग्य से मुझे अंकुश नामक एक और लड़का मिला जो किसी भयानक रोग व समस्या से गुजर रहा था। मैंने उसका इलाज किया तो वह स्वस्थ होने लगा।
            उसने मेरे गिरते स्वास्थ्य के प्रति संवेदना व्यक्त की व मुझको मालिश के लिए प्रोत्साहित किया। मैंने उससे कहा कि मेरे लिए मालिश कराना उसी से सम्भव है जो सात्विक जीवन जीता हो। उसने बीड़ी व शराब पीना छोड़ दिया था व मेरे कहने पर शान्तिकुॅंज नौ दिन का सत्र कर आया। अब वह प्रतिदिन एक घण्टा पूरे श्रद्धा भाव से मालिश करने लगा। इससे मुझे थोड़ा आराम प्रतीत हुआ।
            मैंने अधिकतर सामाजिक कार्यों से छुट्टी लेकर तीन-चार घण्टे जप करना आरम्भ किया। इस दौरान मेरे अन्दर बहुत उच्च विचार व भावों का उदय हुआ। यद्यापि मेरे दाहिने हाथ की माॅंसपेशियाॅं कमजोर हो चुकी थी। रात्रि में अक्सर हाथ थक जाता था। परन्तु भीतर कोई शक्ति जोर मारती व लिखने के लिए प्रेरित करती। इस प्रकार मेरा लेखन बढ़ता गया। अब मैं अधिकतर समय लेखन व जप में लगाने लगा।
            कुछ समय पश्चात् मेरा Ph.D. के कर्म का परिणाम आया उससे मुझे थोड़ी निराशा हुई। मेरे भारतीय परीक्षक (Indian Examiner) को काम बहुत पसन्द आया परन्तु विदेशी परीक्षक (Foreign Examiner) ने उसमें बहुतरी त्रुटियाॅं निकाल कर Major Revision के लिए लिख दिया।
            मैं Ph.D. की तरफ से उदासीन हो चुका था व अपनी पुस्तक युगऋषि का जीवन संघर्षलिखने में व्यस्त था। अब मुझे जप में भी बहुत आनन्द आने लगा था। मेरा जप का अभ्यास बढ़ते-बढ़ते वह अजपा जप की ओर जाने लगा। कभी-कभी सूक्ष्म शरीर व पूर्व जन्मों की झाॅंकी का भी अनुभव होता। एक बात मुझे स्पष्ट हो गई कि मैं पूर्व कुछ जन्मों में विदेश में रहा व स्वामी विवेकानन्द जी के विचारों से प्रभावित होकर अध्यात्म की ओर मुड़ा परन्तु मेरे पूर्व के तीन-चार जन्मों के कर्म बड़े ही खराब थे। उच्च स्तरीय साधना के लिए उनके काटना आवश्यक है पता नहीं इनका भुगतान कैसे हो पाएगा, यह विचार मुझे अवश्य दुःखी करता।
            मैंने गीता के भगवान के आश्वासन को दोहराया कि वो पापी से पापी को भी तारने में समर्थ हैं शोक न करे।
            ”सर्वधर्म-परित्ज्यं भमेकं शरणं वज्र।
            अहं त्वा सर्व पापेभ्ये, भक्षस्यि मंक्षस्यि भ भुचः।।
            मेरा जप का अभ्यास बढ़ने से मुझे साधना के कुछ अच्छे अनुभव होने लगे परन्तु मेरी मानसिक व शारीरिक स्थिति काफी कष्टप्रद बनी रहती थी। चार-पाॅंच बार तो वह समस्या इतनी भीषण हो गई कि मुझे लगा कि मेरे प्राण ही निकल जाएॅंगे। मैंने उस भयावह स्थिति से राहत पाने के लिए अपनी सम्पूर्ण चेतना को समेटकर सहस्त्रार पर ले जाता था। वहाॅं मुझे ऐसा प्रतीत होता जैसे पूज्य गुरुदेव मृत्युंजय शिव बनकर मेरी रक्षा कर रहे हैं। कई बार स्थिति इतनी विकट हो जाती कि मुझे उठते बैठते चक्कर आते प्रतीत होते। यह सब में चुपचाप बिना शोर मचाए सहता रहता क्योंकि घर में पहले ही समस्याओं की कमी नहीं रहती जो मैं उनके लिए एक नई समस्या उत्पन्न कर दूॅं। मेरे बेटे की कुक्क्ुर खाॅंसी की समस्या, बेटी के घुटने में पानी भरने की समस्या, छोटे भाई के बेटे के पेट के रोग के कारण बार-बार अस्पताल में दाखिल कराने के समस्या, वृद्ध माता जी की अपनी अनेक समस्याएॅं। परन्तु मैं शान्त मन से जप व लेखन का कार्य करता रहता व जहाॅं तक बन पड़ता परिवार के सदस्यों की मदद करता। कभी-कभी मेरा मन इतना वैराग्य से मर जाता कि नौकरी पर जाने की इच्छा समाप्त हो जाती। ऐसे में क्या किया जाए कि 24 वर्ष की नौकरी में कुरुक्षेत्र में मकान भी नहीं बना पाए क्योंकि मस्तिष्क में सदा साधना व मिशन दो ही बातें ठूॅंस-ठूॅंस कर भरी हुई थी। करुणामय हृदय होने के कारण किसी की मदद करने से कभी मना भी नहीं कर पाता।

            Sep13 में मेरी दूसरी पुस्तक पूर्ण हुई। पुस्तक प्रिटिंग प्रेस को दे दी गई। मैंने बहुत राहत की साॅंस ली। जब पुस्तक छप कर आई तो हम लोग उसको चढ़ाने सजल श्रद्धा प्रखर प्रज्ञा पर पहुॅंचे। गुरुदेव से प्रार्थना की कि आपने यह कठिन कार्य तो पूरा करा दिया अब आगे क्या आदेश है। Ph.D. पूरी करो फिर यही आभास हुआ। अब घर आकर सुनः दो माह Ph.D. को Revise कराकर जमाकर दिया। यह कार्य काफी कठोर था इस कारण हाथ की माॅंसपेशियाॅं इतनी कमजोर हो गई कि उनसे कलम या चाक चलाना कठिन हो गया। स्थिति अजीबोगरीब थी ‘‘शरीर में दम नहीं, हम किसी से कम नहीं’’। सन् 2014 में क्या गुरुदेव का काम किया जाए व कैसे? यही वेदना जप करते हुए बनी रहती थी। जप का क्रम अच्छा चल रहा था। दिसम्बर 2013 में ही साधना के ऊपर एक पुस्तक लिखने का मानस तैयार होने लगा। जैसे ही पुस्तक लेखन का विचार परिपक्व हुआ तो यह आभास होने लगा कि स्वास्थ्य की चिन्ता नहीं करनी है पुस्तक को अच्छे ढंग से बनाना है यह पुस्तक सवा लाख लोगों की साधना में लाभप्रद होगी। यह विचार कर मन फूले न समाया परन्तु अस्वस्थता के चलते यह कैसे सम्भव होगा, यह सोच मन मायूस हो जाता। जैसे तैसे लेखन का क्रम आगे बढ़ा। जैसे ही पुस्तक लेखन में स्वयं को जोता एक और कठिनाई आ खड़ी हुई। एक शक्तिशाली असुर आत्मा मुझपर मौका पाते  ही आक्रमण करती। अब मैंने शान्तिकुॅंज से ब्रह्मदण्ड मंगाया व साथ रखकर सोता व पुस्तक लिखता। उस असुर आत्मा ने अब मेरे परिवार के दूसरे सदस्यों पर आक्रमण करना प्रारम्भ कर दिया। इससे परिवार में इतनी समस्याएॅं उत्पन्न हो गई कि पुस्तक का कार्य रोक देना पड़ा। मुझ पर आक्रमण इतना तीव्र था कि मुझे Muscular Dystrophy की समस्या उत्पन्न हो गई। कमर की नसें व माॅंसपेशियाॅं इतनी कमजोर हो गई कि बिना सहारे के सीधे बैठना भी कठिन हो गई। मैंने हिमालय की देवशक्तियों से बहुत प्रार्थना की। पूरा परिवार एक साथ एकत्र होकर घर में शान्ति की पुकार कर रहा था। अचानक मेरे कमरे में एक असीम शान्ति छा गई व हम सब ध्यान की अवस्था में खो गए । जब थोड़ी देर बाद नेत्र खुले तो मुझे आभास हो गया कि बाबा जी ने उस आसुरी आत्मा से सदा के लिए पीछा छुड़ा दिया है। अब बात कुछ सामान्य हो गया।
                 मैंने पुनः लेखन प्रारम्भ किया व सोचा कि मुख्य पृष्ठ पर बाबा जी का फोटो डाला जाए। तीन माह पुस्तक लेखन व कम्प्यूटर Setting का कार्य खूब जोरो से निर्विघ्न चला।

मृत्युंजय महामन्त्र


                ¬ त्र्यम्बकं यजामहे संगन्धि पुष्टि वर्धनम्।
                ऊर्वारूक मिव बन्धनानं मृत्युर्मुक्षीय मामृतात्।।
                हे तीन नेत्रों वाले भगवान आप हमारे शरीर की सुगन्धि व पुष्टि को बढ़ाएॅं। हम खरबूजे के समान परिपक्व होकर ही इस शरीर को छोड़कर मृत्यु को न पाकर अमरत्व को प्राप्त करें।
                भावार्थः सर्वप्रथम मन्त्र में भगवान की महिमा का बखान किया है अर्थात् जिनके तीन नेत्र हैं दो नेत्रों से हम भौतिक संसार देख सकते हैं उनकी सीमाएॅं हैं परन्तु तीसर नेत्र आज्ञा चक्र की जागृति का सूचक है। जिसका आज्ञा चक्र सिद्ध हो जाता है उसका संकल्प बहुत शक्तिशाली हो जाता है। इसी कारण सर्वशक्तिमान कहलाता है। शरीर यदि रोगी होता है तो दुर्गन्ध बनी रहती है। शुद्ध व निरोग शरीर में ही सुगन्ध रहती है। सुगन्धि को बढ़ाने से तात्पर्य हे आरोग्य व शुद्धता का अभिवर्धन। शरीर निरोग ही न हो अपितु हष्ट-पुष्ट भी हो अतः पुष्टतः को बढ़ाने की प्रार्थना भी की गई है। इस प्रकार प्रथम चरण में भगवान से आरोग्य व बलशाली शरीर हेतु निवेदन किया गया है।
                द्वितीय चरण में भगवान से अकाल मृत्यु से बचाने के लिए प्रार्थना की गई है। जैसे खरबूजा जब पूरा पक जाता है तो बेल को स्वतः छोड़ देता है उसी प्रकार हम भी जब यह शरीर पूर्ण परिपक्व अवस्था में आ जाए तो बिना कष्ट के छोड़कर परमब्रह्म रूपी अमृतत्व को प्राप्त हों। मृत्यु से अर्थ है कष्टदायक स्थिति में शरीर का छूटना। अमृत से अर्थ है आत्मज्ञान की अवस्था में पूरे आनन्द व शान्ति के साथ इच्छा से शरीर का त्याग करना। हमारे ऋषि, मुनि, योगी लोग जिनको आत्मा की अमरता का ज्ञान हो जाता है वो बिना विचलित हुए स्वेच्छा से इस नश्वर शरीर का त्याग कर ब्रह्मलोक को प्राप्त हो जाते हैं। यही  इस मन्त्र का सार है। वैसे तो मृत्युंजय व्यक्ति के लिए प्रत्येक परिस्थिति में लाभदायक रहता है परन्तु स्वाधिष्ठान चक्र के साथ इसका विशेष सम्बन्ध है।
                मृत्युंजय महामन्त्र का स्वाधिष्ठान चक्र में जप शारीरिक मानसिक स्वास्थ्य के लिए बहुत ही उपयोगी रहता है। इसके लिए पहले व्यक्ति को आज्ञा चक्र में गायत्री मन्त्र का जप करना होता है जिससे आज्ञा चक्र सचेतन हो जाए। अन्यथा नीचे के चक्रों में ध्यान व्यक्ति को वासना व अन्य कठिनाईयों में भी फंसा सकता है। ऊपर के चक्र ब्रह्म चेतना से सम्बन्धित हैं व नीचे के चक्र शारीरिक विकास के लिए आवश्यक हैं।
                चक्र जागरण करने वाले व्यक्ति को सात्विक खान-पान व रहन-सहन का अभ्यास्त आवश्यक है अन्यथा दूषित चक्रों में आसुरी शक्तियाॅं आसानी से अपना प्राण छोड़कर उस शरीर को अपना माध्यम बना लेती हैं और उसको गलत कर्मों की प्रेरणा देकर आसुरी दिशा में भरमा देती हैं।
                बड़े अच्छे-अच्छे साधक छोटी-छोटी गलतियों के चलते पतित होते देखे जाते हैं। भगवान शिव का इतना ऊॅंचा भक्त इतना बड़ा राक्षस बन सकता है यह देखकर बड़ा ही आश्चर्य होता है।

                परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि इस मार्ग पर चलने का साहस ही न किया जाए। दुर्घटना के भय से सड़क पर गाड़ी न चलाने से काम कैसे चलेगा। चक्र विज्ञान को समझना व प्रयोग करना व्यक्ति की अनिवार्य आवश्यकता बनती जा रही है। जैसे मोबाइल जब प्रारम्भ हुआ तो गिने-चुने लोगों के हाथ में देखने को मिलता था परन्तु अब सबके हाथ में रहता है। ऐसे ही चक्र विज्ञान का प्रारम्भ 21वीं सदी के आगमन के साथ ही हो गया था आने वाले दस-बारह वर्षों में यह विज्ञान जन-जन तक पहुॅंच जाएगा। ऐसी देवताओं की योजना है।