Monday, February 29, 2016

तेलंग स्वामी part-III

‘न तस्य रोगो न जरा न मृत्यु, प्राप्तस्य योगाग्निमयं शरीरम्।’
                                 श्वेताश्वर उपनिषद् अर्थात् जो योगाग्निमय देह प्राप्त कर लेता है, उसको रोग, बुढ़ापा और मृत्यु नहीं व्यापते।

स्वामी रामकृष्ण व तेलंग स्वामी का मिलन
            स्वामी रामकृष्ण परमहंस काशी दर्शन के लिए आए। उनके साथ रानी रासमणि के दामाद मथुरानाथ विश्वास व अनेक भक्त थे। गर्मी का मौसम था। दशाश्वमेघ घाट पर आते ही उनके एक अज्ञात शक्ति आकर्षित करने लगी। उन्हें समझते देर नहीं लगी कि कोई दिव्य आत्मा उन्हें आकर्षित कर रही है। परमहंस जी के पैरों में जैसे पंख लग गए थे। वे नंगे पेर तेजी से घाट के किनारे-किनारे पैदल पूर्व दिशा की ओर बढ़ते गए। तभी लोगो ने एक अद्भुत दृश्य देखा। सामने से एक नंग धडंग साधु दोनों हाथ फैलाए चला आ रहा है। पास आते ही दोनो सन्त आपस में लिपट गए और राम भारत का मिलन हुआ हो व एक दूसरे के मौन रहकर काफी समय तक देखते रहे। तत्पश्चात परमहंस जी ने मथुरानाथ को कहा कि सुराज साक्षात विश्वनाथ सामने खड़े है इनका चरण स्पर्श करके अपना लोक परलोक सुधार लें। यह सुनते ही सभी उनका चरण रज लेने लगें। तभी तेलंग स्वामी के साथ आए कुछ लोगों ने जलपान की व्यवस्था की। सभी ने बाबा प्रसाद ग्रहण किया। प्रसाद ग्रहण करते समय परमहंस जी ने साथ आए लोगों से कहा ‘‘हम भी बाबा को खिलाएगें। देखते है बाबा कितना खाते है काशी आकर अगर साक्षात विश्वनाथ को थोड़ा नहीं दिया तो यात्रा सफल नही होगी।’’
            इस घटना के बाद अवसर परमहंस जी तेलंग स्वामी के आश्रम में जाते व मौन बाबा में चुपचाप बातें करते। वहाँ बैठे लोग इस मनोहर दृश्य को देखकर आश्चर्य चकित रह जाते थे। एक दिन घाट पर उपस्थित लोगों ने एक विचित्र दृश्य देखा। परमहंस जी के साथ काफी लोग चल रहे हैं व सभी के सिर ओर हाथों में बड़े-बड़े बर्तन है। यह काफिला तेलंग स्वामी जी की और बढ़ रहा है। तेलंग स्वामी घाट पर लेटे हुए थे। काफिले को आते देख वे उठकर खड़े हो गए। पास आकर रामकृष्ण बोले ‘‘आज अपने विश्वनाथ को खीर खिलाऊँगा। देखूँ मेरे बाबा कितना खाते है?’’
            परमहंस जी की बातें सुनकर स्वामी जी मुस्करा दिए व पालकी मारकर बैठ गए। दनादन कटोरी में खीर उडेलकर परमहंसजी उन्हें खीर खिलाने लगे। देखते ही देखते बीस सेर खीर बाबा जी खा गए। बाबा के बारे में यह आश्चर्य था कि श्रद्धा प्रेम से कोई वस्तु चाहे उन्हें जितनी मात्रा में ही जाए वो खा लेते थे। कभी-2 एक दो सप्ताह तक भोजन नहीं करते थे।
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            सन् 1820 ई. की घटना है। नगर पर ईस्ट इण्डिया कम्पनी का शासन था। गंगा पार काशी नरेश का राज था। उज्जैन नरेश के मित्र थे, वे उनके यहाँ अतिथि हुए। घाट का सौन्दर्य देखने के लिए दोनों राजा नौका बिहार कर रहे थे। तभी वहाँ तैलंग स्वामी दिखायी दिए। उन्हें देख उज्जैन नरेश ने पूछा- ‘‘यह व्यक्ति कौन है जो सबके सामने नंगा धूम रहा है।’’ काशी नरेश तैलंग स्वामी से परिचित थे। उन्होंने कहा कि वो तेलंग स्वामी है जिनके काशी की जस्ता सिद्ध पुरुष के रूप में मानती है। इस पर उज्जैन नरेश बोले- ‘‘हमारे यहाँ अनेक विशिष्ट सत है चलो आज इनसे भी ज्ञान चर्चा की जाय।’’ उज्जैन नरेश बोले कि स्वामी जी के नाव पर बैठाया जाए यही परमार्थ चर्चा होगी। तभी स्वामी जी हवा में उड़ते हुए आए व नाव पर विराजमान हो गए व उज्जैन नरेश से बोले-‘‘कहिए राजन ! आप मुझसे क्या पूछना चाहते हैं?’’ उज्जैन नरेश ने कभी किसी सन्त के इस प्रकार हवा में उड़ते नहीं देखा था वे विस्मय व भय के मारे गंूगे हो गए। तेलंग स्वामी के पुनः प्रश्न करने पर दोनों राजाओं ने उनको प्रणाम किया व उज्जैन नरेश बोले- ‘‘स्वामी जी हमें भगवान ने पृथ्वी पर भेजा है व यहाँ पर हम कोई प्रकार के सुख दुख भोगते है। क्या इनसे मुक्ति पाकर हम भगवान को पा सकते है? सिद्ध लोग तो भगवान के दर्शन कर जीवन धन्य कर लेते है परन्तु साधारण मानव के मुक्ति कैसे मिल सकती है?’’ इस पर स्वामी जी बोलें- ‘‘ज्ञान, वैराग्य, नम्रता, साधु संग के द्वारा मुक्ति की इच्छा उत्पन्न होती है। राजाओं में इन गुणों का सामान्यतः अभाव होता है। राजा लोग अपनी आध्यत्मिक उन्नति का प्रयास नहीं करते।यह सुनकर दोनों राजा लोग नाराज हो लगें व अनेक वाद विवाद करने लगे।
            सहसा काशी नरेश के हाथ से तलवार लेकर स्वामी जी ने उतर पुलट कर देखने के बाद गंगा नदी में फेंक दिया। इस पर उज्जैन नरेश कुपित हो उठे- ‘‘यह कैसा साधु है जो दूसरों का सामान उठाकर फेंक देता है? बाते इतनी बड़ी-2 ओर काम इतना ओछा।’’
            काशी नरेश ने भी इसके अपना अपमान समझा व भीतर ही भीतर बाबा पर क्रोधित हो गए परन्तु सयमित वाणी में एक अल्लाह से कहा ‘‘घाट के किनारे गोताखोर होंगे, उनसे तलवार निकलवा कर लाइए।’’ तैलंग स्वामी नाव से नीचे उतरने लगे तो काशी नरेश बिगडकर बोले ‘‘जब तक तलवार नहीं मिल जाती तबतक आप कहीं नहीं जा सकते।’’
            दोनों राजाओं का ज्ञान व वैराग्य एक तलवार के पीछे समाप्त हो चुका था वे इतने क्रोधित थे कि तलवार न मिलने पर स्वामी जी के बन्दी बनाने की बात सोच रहे थे। अन्तर्यामी बाबा से यह रहस्य छिपा नहीं रहा। उन्होंने मुस्करा कर नदी में हाथ डाला व चार तलवारें राजा को देते हुए कहा- ‘‘इसमें से जो तलवार अपनी हो, उसे पहचानकर ले लो।’’
            कहाँ एक तलवार के पीछे राजा इतने उत्तेजित हो उठे थे कि स्वामी जी के बन्दी बनाने की बात सोच बैठे थे पर अब अपनी तलवार को पहचानने की समस्या सामने आ गयी। स्वामी जी बोले, ‘‘एक सामान्य तलवार के लिए इतना क्रोध अभी-अभी तुम लोग बड़ी आत्मा, परमात्मा, ज्ञान वैराग्य की बातें कर रहे थे ओर क्षण भर में सारा वैराग्य समाप्त हो गया। घिरस्कार है ऐसे जीवन पर अपनी तलवार भी नहीं पहचानने की योग्यता रखते हो तो भगवान के क्या पहचानेगें?’’
            इतना कहकर उन्होंने एक तलवार राजा को देकर बाकी गंगा में फेंक दी। इसके साथ ही वे नदी में कूद पडे़। देर तक दोनों राजा स्वामीजी के निकलने की प्रतीक्षा करते रहे ताकि अपने अपराध के लिए क्षमा मांग लें, पर वे पानी से नहीं निकले।
            आखिर मल्लाह ने कहा- ‘‘महाराज, रात्रि जा रही है, वापिस लौट जाइए। स्वामी जी कई बार दो तीन से पानी के भीतर ही रह जाते है पता नहीं कहाँ व कैसे रहते है?
            काफी देर प्रतीक्षा करने पर काशी नरेश ने गंगा नदी के प्रणाम करते हुए कहा- ‘‘मुझसे गलती हो गई महाराज हो सके तो इस पापी के क्षमा कर देना।’’

            वास्तव में आज भी इस राष्ट्र के सम्मुख यही समस्या ज्यों थी त्यों है। व्यक्ति धर्म, अध्यात्म, ज्ञान, मोक्ष की बड़ी-बड़ी बाते बनाता है परन्तु अपने आचरण के सुधार की ओर ध्यान बहुत ही कम देता है। आचरण व्यवहार, कर्मों की पवित्रता इस दिशा में आगे बढ़ने के लिए सर्वोपरि है। बाते यदि अच्छी मिठाईयों थी की जाएँ व पी ली शराब जाए तो उन सभी बातों का कोई मूल्य नहीं रह जाता। इसी प्रकार कर्मो की पवित्रता के बिना ईश्वर कृपा, दैन कृपा मानव के ऊपर नही आ सकती चाहे कितना भी पूजा पाठ, जप तप किया जाय। स्वामी जी ने राजा को यही शिक्षा दी कि कर्मों के सुधार, आचरण में नम्रता लाए बिना कोई साधु सन्त सहायक नही हो सकता। यह कार्य तो मानव के स्वयं ही करना पडेगा। जैसा बच्चा यदि कदम नहीं बढ़ाता है तो उसकी चलना कोई नहीं सिखा सकता। इसी प्रकार व्यक्ति यदि अपने आचरण के सुधार पर प्रयास नही करता तो उसका हित कोई नहीं कर सकता। अतः आइए सर्वप्रथम हम कर्मयोग से अपनी आध्यत्मिक उन्नति का प्रारम्भ करें। श्री मद्भगवद्गीता के भी निष्काम कर्मयोग का ग्रन्थ माना गया है क्योंकि उसमें के विषय में अर्जुन के सबसे अधिक सचेत किया गया है। महात्मा बुद्ध के समय भी यही समस्या भी इसलिए उन्होंने अपना सारा ध्यान कर्मो के सुधार की ओर लगाया। अंगुलिमाल, आम्रपाली के गलत कर्मों से छुडवाया। महात्मा बुद्ध के समय में ईश्वर के विषम में वेदों के विषय में चर्चाएँ चलती रहती थी परन्तु कर्मों के विषय में सब मौन रहते थे। बुद्ध ने धारा को उल्टा चलाया। ईश्वर व वेदो के विषम में चर्चाओं के बन्द किया व लोगों को आत्म चिन्तन व कर्म सुधार की ओर प्रेरित किया।

Wednesday, February 24, 2016

गृहस्थ आश्रम PART-6

अब तीर्थ स्वामी विशुद्धानन्द गृहस्थ आश्रम के लिए घर वापिस आ गए एवं उनकी माता ने प्रसन्न हो उनके विवाह के प्रयत्न प्रारम्भ कर दिए। माना जाता है कि जब दादा गुरु भृगुराम देव जी ने विवाह का आदेश दिया उसी समय उन्होंने इनके विवाह के लिए ऐसी कन्या का चयन किया था जो उनके प्रयोजन को पूर्ण करने में सहायक सिद्ध होगी। गुरु माॅं के सम्बन्ध में जो विवरण मिलता है उसके अनुसार वे सुशीला, कर्मठ एवं निरभिमान महिला थी तथा पूरे परिवार की सेवा में लगी रहती थी। उनका नाम कृष्णभामिनी देवी था वो सन् 1892 ई. में स्वामी गृह में आई थी। सन् 1894 के जून में इनके प्रथम पुत्र दुर्गादास का जन्म हुआ। क्रम से एक अन्य पुत्र विष्णुपद तथा कन्या विश्वेश्वरी देवी का भी जन्म हुआ।
Ÿडाॅक्टरी विद्या अपनाकर स्वामी जी वदर््धमान जिला के गृष्करा नामक स्ािान में रहकर
चिकित्सा व्यवसाय के द्वारा अपने परिवार का भरण-पोषण करने लगे। सन् 1893 में से गुष्कमा आए थे व सन् 1911 तक यहीं रहे, तत्पश्चात् दादा गुरु के आदेश पर ही यह स्ािान छोड़ा। Ÿडाॅक्टर के रूप् में गुष्करा में स्वामी जी की ख्याति कुछ ही समय में फेल गई व दूर-दूर से धनी रोगी भी उनके पास चिकित्सार्थ आने लगे। यहाॅं स्वामी जी दिन में कई बार स्नान करते थे। दिन में जन सेवाकर कर्म रात्रि में अन्नाहार न करके तीव्र तप के साथ योग चर्चा में लगे रहते थे। Ÿअचानक शीतकाल में भी रात्रि को 2 बजे लालटेन हाथ में लटकाएॅं ये पोखर में स्नान के लिए जाते थे। पोखर के जल में वे प्रायः आधे घण्टे तक निमग्न रहते। स्नानोपरांत स्त्रोतपाट करते हुए घर आते व कमरे के द्वार बन्द कर गुप्त साधन क्रिया में लीन हो जाते। उस समय सारा कमरा पद्म गन्ध से सुवासित हो उठता। प्रायः सात बजे तक वे बाहर निकलते। उनका मानना था कि इस प्रकार दृढ़ता व एकाग्रता के साथ साधना करने पर ही भगवद्प्रेम का अधिकारी बन सकता सम्भव हो सकता है। जीव भाव की शिव भाव में परिणति कठोर साधना द्वारा ही सम्भव है। सात बजे जब बाबा बाहर आकर बैठते तब कोई उन पर पंखा उठाकर हवा करता तो कोई उनके चरण दबाता। गम्भीर ध्यान का नशा उस समय भी उन पर छाया रहता था। उस समय बैठक खाने के बरामदे में अनेक रोगी, साधु, गृहस्थ, बालक, वृद्ध, भोगी व योगी सभी एकत्र होने लगते थे। बाबा सभी पर स्नेह दृष्टि डालकर पूछते - Ÿकहो क्या हाल है? अच्छे तो हो?
Ÿकोई कहता बाबा! दवा चाहिए्। कोई पूछता, बाबा मेरे उदार का उपाय बताओं? कोई सन्तान शोक से दुःखी होकर बाबा से शान्ति का उपाय पूछता। कोई कपड़ा, खाना, धन प्राप्ति की प्रार्थना करता तो कोई बाबा से अलग एकान्त में साधना तत्व के गूढ़ रहस्यों पर परामर्श के लिए आकुल भाव से प्रार्थना करता। जो कोई जिस किसी मनोरथ को लेकर आता, बाबा उसका मनोरथ उचित ढंग से पूर्ण करते। बालक-बालिकाएॅं प्रसाद पाने के लालच में बाबा के पास आते थे। वे उन्हें तरह-तरह के फल, मिठाईयाॅं और सुगन्धित पदार्थ बाॅंटकर उनको सन्तुष्ट करते। इस प्रकार इस महापुरुष के रहते गुष्करा आनन्द का हाट हो गया था। बाबा के निकास स्ािान से पदम गन्ध निरन्तर निकलती रहती थी। व बाबा जहाॅं भी जाते वहाॅं भी वह गन्ध प्रतीत होती थी।
Ÿबाबा बालिकाओं में साक्षात् महाशक्ति जगदम्बा की भावना रखते थे व कुमारी-भोजन को महायज्ञ मानते थे। उनका कहना था कि कुमारी भोजन से जगदम्बा महाशक्ति विशेष रूप् से संतुष्ट होती है। इसके बुरे कर्मों के पापों से छुटकारा मिल जाता है तथा अनेक विघ्न और संकटों का निवारण होता है। हर पूर्णिमा को ग्यारह अथवा अधिक कुमारियों के भोजन की व्यवस्था करनी चाहिए तथा 12 वर्ष की आयु तक की कन्याओं को पूरी, हलवा, दही, रसगुल्ला, आलू, परवल आदि की सब्जी से शुचिता के साथ भोजन कराया जाना चाहिए। प्रातः दस बजे तक उन्हें भोजन कराएॅं। पहले कुमारियों के चरण धोएॅं फिर स्वच्छ स्ािान पर आसन पर बैठाकर श्रद्धा सहित साक्षात् जगदम्बा का स्वरूप मानकर उन्हें भोजन कराएॅं। फिर चरण छूकर व दक्षिणा देकर विदा करें। बाबा कहते थे कि कुमारी भोजन से बढ़कर इस समय में दूसरा कोई यज्ञ नहीं है।
 प्रातः ठीक बजे बाबा भोजन करते। उसके पश्चात् आए हुए भक्तगणों के साथ विविधविषयों पर शास्त्रक सम्बन्धी आध्यात्मिक चर्चा करते। शास्त्रों के गूढ़ रहस्यों को सरल भाव से प्रत्यक्ष करके समझाा देते। एक बजे से चार बजे तक आस-पास के गाॅंवों के बहुत से साधु-ब्राह्मणों व पण्डित आदि वहाॅं पधारते व अपने संशयों का समाधान पाते थे। Ÿसूर्यास्त होते ही ठीक समय अपनी नित्य क्रिया के लिए पूजा गृह जाकर द्वार बन्द कर परमात्मा के ध्यान में लग जाते थे। दूसरे किसी लोकिक कार्य के लिए कभी अपनी साधन क्रिया में हस्तक्षेप नहीं होने देते थे। ठीक नौ बजे रात्रि को शयन के लिए चले जाते। यही क्रम उनका प्रायः जीवन के अन्त तक चला।
बंगाल की भूमि किसी समय साधु, सन्तों, भक्तों, योगियों की भूमि रही है। चैतन्य महाप्रभु की लीलास्थली भी यही थी जिनके द्वारा पूरे बंगाल की धरती पर भक्ति व संकीर्तन की गूॅंज सुनाई देती थी। इस पर भी बंगाल किसी समय शाक्य योगियों का प्रान्त था। बड़े-बड़े शक्तिशाली योगी यहाॅं पैदा हुए थे। बहुत से बौद्ध योगी भी थे। भक्ति मार्ग में जिस प्रकार नाना सम्प्रदाय और शाखाएॅं है उसी प्रकार योगमार्गाे में भी अनेक पंथ हैं। सबकी साधना प्रणाली अलग-अलग रही है परन्तु शक्ति विकास का सुयोग सभी में है। अन्य प्रदेशों के साधु भी बंगाली योगियों की सिद्धियों से परिचित थे। कहते हैं अमरकण्टक के वनों में एक बंगाली साधु बाघ बनकर घूमता था इसलिए सब उन्हें ‘बाघवा बाबा’ कहा करते थे। बंगाली महायोगियों की शक्ति से तो पूरा भारत परिचित रहा है इनके नाम हैं - 1. श्यामाचरण लाहिड़ी 2. बादी के लोकनाथ ब्रह्मचारी 3. वर्दमान के विशुद्धानन्द परमहंस 4. स्वामी रामकृष्ण परमहंस 5. विजय कृष्ण गोस्वामी इनके समकक्ष योगियों में काशी के तैलंग स्वामी व गोरखपुर के गम्भीरनाथ का नाम बड़ी श्रद्धा से लिया जाता है।
इन सभी की शक्ति की कोई सीमा नहीं थी। ये सभी अति उन्नत योगी थे। जिस समय हमारा राष्ट्र राजनैतिक व आर्थिक दृष्टि से मृतप्रायः हो गया था इतने बड़े-बड़े योगियों ने आकर इस राष्ट्र की रक्षा की। आज दुःख की बात है कि आर्थिक व राजनैतिक दृष्टि से भारत की स्थिति कैसी भी हो परन्तु साधना की दृष्टि से आज बड़ी ही दयनीय स्थिति है। सुनते हैं कि महात्मा बुद्ध के शरीर से सुगन्धि निकलती थी उनका शरीर गन्धमय था। वे जिस कुटी में रहते थे, वह गन्धकुटी के नाम से प्रसिद्ध थी। इसी प्रकार श्री राधा कृष्ण की देह से पद्म गन्ध की बात शास्त्रों में आती है। श्री चैतन्य महाप्रभु की देह भी विशेष समय पर गन्धमय हो जाती थी। योगी लोग कहते हैं कि योग की चार अवस्थाओं में देह शुद्धि के साथ दिव्य गन्ध का भी उदय होता है। पाश्चात्य सन्तों में सन्त टेरेसा की देह से दिव्य गन्ध निकलती थी यहाॅं तक कि मृत्यु के बाद भी निकलती रही।

यह राष्ट्र )षियों की धरोहर है। इसका उत्थान निश्चित है। एक बार अमेरिकी डाॅक्टर स्ंततल ठतपससपंदज नीम करौली के बाबा के आश्रम कैंची धाम में साधना करते थे। अपनी साधना में उन्हें अपने गुरु कीअ ावाज सुनाई दी। जिसमें उनसे गुरु दक्षिणा के लिए कहा गया। भारत के बच्चे च्वसपव व ैउंससचवग से पीडि़त न हो यह प्रयास तुमको करना है। उन डाॅक्टर ने ॅभ्व् के माध्यम से भारत में ये व्यापक अभियान चलाकर अपने महान गुरु को यह अनमोल दक्षिणा समर्पित की। हम सभी भारतवासी इन महान गुरुओं के )णी हैं व इनकी शिक्षाओं को जीवन में अपनाकर ही अपनी श्रद्धांजलि इनके चरणों में प्रस्तुत कर सकते हैं।

ज्ञानगंज योगाश्रम साधना PART-5

एक अन्य प्रसंग में उन्होंने अपने विषय में बतलाया था, ”बचपन से ही सत्य के प्रति अनुराग था। झूठ नहीं बोल सकता था। इसी में दादा गुरु मुझसे बहुत स्नेह करते थे। ज्ञानगंज में एक दिन स्नान करने जा रहा था, उसी समय एक कुमारी को स्नान करते देख मेरे चित्त चंचल हो उठा। मैं  बिना स्नान किए दादा गुरुदेव के पास चला गया। मुझे असमय आते देख वे तनिक हॅंसे। मैंने बिना किसी प्रकार की भूमिका बाॅंधे अपने मन की शोचनीय स्थिति उनके सामने खोलकर रख दी। सम्भव हो तो मेरे इस पाप के लिए प्रायश्चित की व्यवस्था कर दें नहीं तो मुझे आश्रम से बाहर निकाल दें। मेरे जैसा आदमी यहाॅं रहने के योग्य नहीं है। दादा गुरुदेव ने हॅंसते हुए कहा कि उनके आशीर्वाद से अब कभी काम हावी नहीं होगा। यह कहकर उन्होंने मुझे एक प्रक्रिया सिखाई व उसका अभ्यास करने को कहा। दादा गुरुदेव की शक्ति अप्रतिम है। तीनों लोक उनके भय से काॅंपते हैं।“
बंगाली होेने पर भी स्वामी जी दिव्य जीवन की प्राप्ति के लिए खाद्य व अखाद्य पर भली-भान्ति विचार करते थे। सत्संग की उपयोगिता पर बल देते थे अव साधना के लिए प्रेरित करते थे। उनका मानना है कि साधना के विषय में जो जितना कर्म करेगा उतना सफल होगा। सबसे पहले चरित्र उत्तम न होने से कुछ भी सम्भव नहीं। धर्म का आश्रय ग्रहण कर ही शान्ति मिल सकती है। Ÿदण्डी और संन्यासी जीवन के आठ वर्षों में इन्होंने सम्पूर्ण भारतवर्ष का पर्यटन किया और अच्छी साधना के और भी परिपुष्ट किया। तत्पश्चात् ये ज्ञानगंज योगाश्रम में लौट आए। अब इनकी इच्छा ‘नाभि धौति’ सीखने की हुई जो हठ योग की अति कठिन किया है। जब इन्होंने यह इच्छा ज्ञानगंज के एक वयोवृद्ध योगी के सामने रखी तो वह इनका उपहास उड़ाने लगे, ”तुम वामन हो कर चन्द्रमा के हाथ से पकड़ता चाहते हो। हम सौ-सौ वर्ष योगाभ्यास करने वाले भी इस क्रिया में सफलता नहीं पा सके तुम कल के लड़के कैसे सीखेंगे?“ जब भुगुराम जी यह पता चला तो उन्होंने संन्यासी विशुद्धानन्द को यह क्रिया सिखाई। इस क्रिया द्वारा शरीर शून्यमय हो जाता है। इससे शरीर को संकुचित तथा प्रसारित करने की क्षमता आ जाती है। एक रोमकूप में से होकर किसी बड़े पदार्थ को भी शरीर के भीतर फसाया जा सकता है अथवा बाहर निकाला जा सकता है।
इस प्रक्रिया द्वारा स्वामी जी ने अपनी देह में प्रायः 400 स्फटिक गोलक तथा मस्तिष्क में बाणलिंग, शालिग्राम, माता आदि यथा स्ािान सजा कर रखे थे। प्रयोजन पड़ने पर पूजा आदि के लिए वे उनको बाहर निकाल लेते तथा क्रियादि के उपरान्त फिर भीतर घुसा देते। बड़े-बड़े स्फटिक गोलक रोमछिद्रों में से देह के भीतर प्रविष्ट करते हुए उन्हें अनेक शिष्यों-भक्तों ने स्वयं देखा था। शरीर के एक भाग में प्रविष्ट कराके वे उसी वस्तु को भीतर ही भीतर देह के दूसरे भाग में ले जाते थे। कभी-कभी संकोच प्रसार करते समय एक दो स्फटिक अपने आप देह से बाहर छिटक जाते थे। जिसके कारण उग्र तथा विशुद्ध पद्म गंध वातावरण में फेल जाती थी। वे शरीर के किसी भी अंग को स्वेच्छानुसार छोटा, भारी या हल्का कर सकते थे।
इस प्रकार ‘नीम-धौति की उन्नत अवस्था विशेष को कहते हैं - ‘किरात धौति’ इसमें शरीर के किसी भी अंग में यथेच्छा वायु भी ली जाती है जिसे कहते हैं - किरात कुम्भक। इसके बल से योगी आकाश में उड़ पाता है और अपना बाह्य ज्ञान को बनाकर रख सकता है। Ÿक्रिया ;पूजाद्ध के समय बाबा की देह के भीतर भयानक ताप तथा विद्युत शक्ति जाग्रत हो उठती। उस समय देह को ठण्डा रखने के लिए वो दो सर्पों को अपनी देह पर लपेट लेते थे। इसके अतिरिक्त विद्युत शक्ति को शान्त रखने के लिए स्फटिक को शीत स्पर्श गोलक सजा कर रखते थे। इस प्रकार ज्ञानगंज में स्वामी जी ने मंत्र, तपस्या तथा समाधि द्वारा अनेक सिद्धियाॅं प्राप्त की थी जिसका प्रयोग वो लोकहित में ही करते थे। आग्रह तथा प्रार्थना से वे जन सामान्य के क्लेश व रोग दूर कर दिया करते थे।

तीर्थ स्वामी पद पर आसीन होने के उपरान्त इनको गुरु का आशीष मिला कि अब घर वापस जाकर गृहस्थ होना है व लोककल्याण की भूमिका निभानी है। वे 14 वर्ष 3 मास की आयु में ज्ञानगंज गए थे। इस आदेश की प्राप्ति पर उनकी आयु 35 वर्ष से उळपर हो चुकी थी। स्वामी जी को अब योग मार्ग में इतना आनन्द आने लगा था व इतनी शक्तियों का विकास हो चुका था कि गृहस्थाश्रम प्रवेश का आदेश उन्हें बड़ा भारी प्रतीत हुआ। उन्हें भय था कि परिवार व समाज में रहते - रहते इतने कठिन परिश्रम से अर्जित )द्धियों-सिद्धियों कहीं लुप्त न हो जाएॅं। आश्रम में रहते उन्होंने कभी गुरु आदेश का लेशमात्र लंघन नहीं किया था इस कारण गुरु के सामने अपनी अनिच्छा व्यक्त न कर सके। उनके गुरु सर्वज्ञता बल के कारण उनके मनोभाव को जान गए। उन्होंने इनको आश्वस्त विद्या कि गृहस्थ होने पर भी उनकी आध्यात्मिक क्षति तनिक भी नहीं होगी और फलस्वरूप अधिक उन्नति होती जाएगी। लौकिक शिक्षा के अभाव में वे कैसे परिवार का पालन पोषण करेंगे यह प्रश्न उनके सम्मुख था। दादा गुरु का आदेश मिला डाॅक्टरी करना तथा योग ज्योतिष द्वारा जन्मपत्री आदि का विचार कर लोगों के समुचित कवच आदि देना। इसी आय से तुम्हारा जीवन निर्वाह अच्छा चलता रहेगा।

ज्ञानगंज की यात्रा PART-4

दो-ढाई वर्ष पश्चात् पुनः इनकी उन संन्यासी से मुलाकात हुई व इन्होंने घर छोड़कर संन्यास लेने की इच्छा प्रकट की। इन संन्यासी का नाम निमानन्द था। अबकी बार स्वामी नीमानन्द भोलानाथ को अपने साथ ले जाने के लिए तैयार हो गए। भोलानाथ का एक घनिष्ठ मित्र हरिपद भी इनके साथ जाने की जिद पर अड़ गया। स्वामी निमानन्द ने उनकी धैर्य और निष्ठा की परीक्षा लेने के अभिप्राय से कहा- ”अच्छी तरह सोच लो। बड़े दुर्गम पथ की यात्रा करनी पड़ेगी। भयंकर वन पर्वतों में रहना पड़ेगा तथा अनेक कषटों को झेलना पड़ेगा।“ परन्तु दोनों बालक टस से मस न हुए व सारे कष्टों को सहर्ष स्वीकार करने के लिए तैयार थे। अब निमानन्द ने इन दोनों बालकों की आॅंख पर पट्टी बाॅंध दी व अनेक नदियाॅं, पर्वत, मैदान पर करते हुए एक रोमांचक यात्रा करते हुए अपने गन्तव्य पर पहुॅंच गए। कहीं - कहीं इन्होंने आकाश मार्ग से भी गमन किया। एक स्ािान पर पहुॅंचकर जब इनकी पट्टी खोली गई तो उन्होंने देखा कि सवेरे का समय है और ये लोग एक दिव्य स्ािल पर आ पहुॅंचे हैं। चारों ओर गगनचुम्बी पर्वत-श्रेणियों श्वेत बर्फ से ढकी शोभायमन थी।
बालोचित जिज्ञासा से बालकों ने निमानन्द जी से पूछा कि इस समय वो लोग कहाॅं पहुॅंच गए हैं। वे बोले - ”तुम लोग इस समय उत्तरापथ के मध्य तिब्बत में स्थित एक प्रसिद्ध तथा अति दुर्गम गुप्त योगाश्रम में हो जिसे ‘ज्ञानगंज योगाश्रम’ कहते हैं। ज्ञानगंज अपने आप में अद्भुत था। यहाॅं कितने ही योगी नाना प्रकार के यन्त्र लेकर दिन-रात विज्ञान आलोचना में लगे हैं। कितने ही ब्रह्मचारी तथा दण्डी कठोरतम साधना में लगे हैं। कुमारी भोजन का आयोजन होने पर सहस्त्रों कुमारियाॅं आकर सेवा ग्रहण करती हैं। एक-एक परमहंस की आयु 400-500 वर्ष तक है। परमहंस तुल्य उन्नत योगिनी यहाॅं भैरवी माता कहलाती हैं। जिन निमानन्द जी के साथ वो आए थे उनकी आयु भी 500 वर्ष से अधिक थी। नौ-दस दिन वो विस्मयपूर्वक यहाॅं के क्रियाकलाप देखते रहे। तत्पश्चात् दोनों बालकों को उत्तर तिब्बत के अति दुर्गम एवं अति रमणीय स्ािान मनोहर तीर्थ के एक आश्रम में ले जाया गया। यहाॅं है ज्ञानगंज के परमहंसों के गुरु ब्रह्म)षि महातपा जी महाराज का आसन। भोलानाथ ने देखा कि वे अतिवृद्ध हैं व आयु 1300 वर्ष है। उनकी गुरुमाता भी वहाॅं विधमान थी उनकी आयु भी उतनी ही थी उन्हें दीपा माॅं कहते हैं।
महातपा जी ने दोनों बालकों के सिर पर हाथ रखकर शक्ति संचार किया व बीज मंत्र प्रदान किया। महातपा महाराज के एक प्रिय शिष्य श्री श्री भृगुराम परमहंस जी को बालकों की योग शिक्षा का भार सौंपा गया। इनको ये दादा गुरु कहते थे क्योंकि इनकी आयु 600 वर्ष के करीब थी। एक अन्य स्वामी श्री श्यामनन्द परमहंस ही को बालकों की विज्ञान शिक्षा के लिए नियुक्त किया गया। इस सम्बन्ध में विस्तृत जानकारी के लिए प. गोपीनाथ कविराज की पुस्तक ‘श्री श्री विशुद्धानन्द परमहंस’ का अध्ययन आवश्यक है।
जिस विज्ञान की शिक्षा इन्हें यहाॅं दी जाती थी उसे सूर्य विज्ञान कहा जाता है। इसके विषय में प्.गोपीनाथ ने लिखा है - ” सूर्य ही सभी विज्ञान का आधार है। सृष्टि, स्थिति और संहार सविता देवता के अधीन हैं। इच्छा शक्ति, ज्ञान शक्ति और क्रियाशक्ति का प्रसार सविता से ही होता है। योग का परम उद्देश्य यही विज्ञान है। केवल प्रणाली में भेद है। योग मार्ग में विज्ञान और विज्ञान मार्ग में योग एक-दूसरे के सहायक है। चन्द्र विज्ञान, नक्षत्र विज्ञान, वायु विज्ञान, स्वर विज्ञान एवं देव विज्ञान आदि सूर्य विज्ञान के अन्तर्गत खण्ड विज्ञान मात्र हैं।

ज्ञान गंज के नियमानुसार दोनो युवकों के 12 वर्ष ब्रह्मचर्य व्रत का पालन कर कठोर तप करना पड़ा था। तदन्तर 4 वर्ष दण्डी तथा 4 वर्ष संन्यासी के रूप् में थे। तत्पश्चात् इनको तीर्थ स्वामी पद पर प्रतिष्ठित किया गया। उन्हें आश्रम से नया नाम विशुद्धानन्द प्राप्त हुआ। विशुद्धानन्द जी के अनुसार योग का मार्ग सुगम न होकर अत्यन्त कण्टकाकीर्ण तथा दुर्गम है, जिसमें पग-पग पर बाधाएॅं आती हें। यदि भगवतकृपा से सद्गुरु प्राप्त हो जाए तो वो आने वाले विध्नों से निरन्तर सावधान करने के साथ-साथ रक्षा करते चलते हैं। आसक्ति तथा गर्व ;अहंद्ध ये दो मुख्य विघ्नकारक शत्रु हैं जो योगी को पतन की ओर गिराते हैं जिनसे योगी को सतत सावधान रहना चाहिए। स्वामी विशुद्धानन्द जी ने अत्यन्त तीक्ष्ण बुद्धि तथा कठोर साधना के फलस्वरूप योग के आठों अंगों पर पूर्ण अधिकतम प्राप्त कर लिया व अपने सहयोगियों से अधिक उन्नत हो गए। स्वामी विशुद्धानन्द बड़े सरल हृदय के सत्यनिष्ठ व्यक्ति थे। एक दिन बातों-बातों में वो अपने साधनाकाल के रोचक प्रसंग सुना रहे थे। पहले मैं कालिदास से कम मूर्ख नहीं था। कालिदास जिस डाल पर बैठे थे उसी को काट रहे थे पर मैं उससे भी एक डिग्री उळपर था। एक बार हम कई युवकों को पहाड़ के उळपर पेड़ पर एक पका आम दिखाई  दिया। सभी की दृष्टि उस पर पड़ी व युवक उसको पहले पाने के लिए पेड़ पर चढ़ने लगे। सबसे पहले आम पाने हेतु मैंने बिना आगे पीछे सोचे पहाड़ी से छलांग लगा दी। फल तो पा लिया पर धरती पर गिरते ही पैर फिसल गया और पहाड़ी से नीचे लुढ़क कर बेहोश गया। जब होश आया तो देखा दादा गुरुदेव ;श्री भृगुराम जीद्ध मुझे आकाशमार्ग से कहीं लिए जा रहे हैं। उनको देखकर मैं डर गया। उन्होंने मुझे गाली दी व पहले आम खाने को कहा। जब मैं मन्द करने लगा तो उन्होंने कहा जिस आम के कारण तुम्हारे प्राण जा सकते थे पहले उसे खा डालों। पहाड़ी से गिरने के कारण देह और जाॅंघ कई जगह से फट गई थी। घावों पर दवा लगाने पर उन्होंने कहा कि बता अब तो कभी ऐसा काम नहीं करेगा। मैंने कहा - क्यों नहीं करूॅंगा? आपके रहते मुझे डर किसका। दादा गुरु मुस्कराकर सिर पर हाथ रख आशीर्वाद देकर चले गए।“

जीवन में आमूल चूल परिवर्तन PART-3

कहा जाता है कि दुर्घटनाएॅं कभी-कभी जीवन में वरदान बनकर आती हैं। इटली का नट द’ एंजलो नटबाजी में यदि न गिरता तो साधारण नट रह जाता। गहरी चोट से उसमें अद्भुत शक्ति का जागरण हुआ था। वह अपने स्पर्श से गूॅंगे को आवाज व जटिल रोगियों को स्वस्थ करने वाला देवपुरुष बन गया था। ठीक इसी प्रकार एक दिन भोलानाथ की सीढि़यों से उतरते वक्त एक पागल कुते ने काट लिया। अनेक डाॅक्टरों व पागल कुत्ते के काटे मरीजों का टोना-टोटका करने वालों से उपचार कराया गया परन्तु कोई लाभ नहीं मिला। दिन-प्रतिदिन कष्ट बढ़ रहा था। सभी ने बालक के जीवन की आशा छोड़ दी थी। अन्त में निराश बालक गंगा की पावन धारा में डूबकर इस असहाय वेदना से मुक्ति का उपाय सोचने लगा।
किन्तु भगवान की लीला कुछ और ही थी। गंगा तट पर सायंकाल यह निराश बालक एक विचित्र दृश्य देखता है। एक जटाधारी संन्यासी बारम्बार गंगा में डुबकी लगा रहा है। जब वह डुबकी लगाकर खड़ा होता है तो गंगा का जल भी साधु के साथ-साथ स्तम्भ के आकार में उळपर उठता है तथा साधु के डुबकी लगाने पर उसके साथ-साथ नीचे चला जाता है। आश्चर्यचकित होकर बालक भोलानाथ इस लीला को एकटक देखता रहा। सोम्यमूर्ति वह संन्यासी त्रिकालज्ञ थे। उनका मुखमण्डल प्रशान्त था और दोनों चक्षु उज्ज्वल व स्नेहपूरित थे। बालक को देख वो बोले, ”बच्चा घबरा मत, हम अभी तुम्हें अच्छा कर देते हैं।“ यह कहकर वो गंगा जी से बाहर आए और अपना हाथ बालक के सिर पर रखा। बालक को बड़ी शान्ति व पीड़ा में राहत की अनुभूति हुई। तत्पश्चात् संन्यासी ने समीप के जंगल से एक जड़ी लाकर खिला दी और कहा - ”अब घर जाकर विश्राम करो। पेशाब के साथ पागल कुत्ते का सारा विष निकल जाएगा और तुम पूर्ण स्वस्थ हो जाओगे। तुम दीर्घजीवी प्रसिद्ध येागी बनोगे। मन से चिन्ता दूर कर दो।“ कुछ घण्टों उपरान्त बालक स्वस्थ हो गया घर में आनन्द की लहर दौड़ गई।
बालक व परिवार वालों के मन में संन्यासी के प्रति कृतज्ञता व असीम श्रद्धा उत्पन्न हो गई थी व संन्यासी के साथ जीवन जीने के लिए उन्होंने अपनी माॅं से प्रार्थना की। माता ने भी स्वीकृति दे दी - ”वत्स! मेरे लिए तुम चले ही गए थे क्योंकि मैंने तो तुम्हारे जीवन की आशा छोड़ दी थी। जिसने तुम्हें नवजीवन प्रदान किया है उनके साथ तुम प्रसन्नतापूर्वक जा सकते हो। मैं आशीर्वाद सहित सहर्ष तुम्हें जाने की आज्ञा देती हूॅं। तुम्हारा मंगल हो। हाॅं! कभी-कभी माॅं को अवश्य याद कर लेना व अवसर पाकर मिलने आना।“
दूसरे दिन बालक पुनः गंगातट पर भोलानाथ उस संन्यासी को खोजने लगे व उनको अपनी कुशलक्षेम बताने के पश्चात् उनसे प्रार्थना की - ”प्रभो! आपने मुझे जीवन दिया है। मैं अब आपका साथ नहीं छोड़ सकता आप मुझे दीक्षा दें व अपने साथ ले चलें। मैं अपनी माता से आपके साथ चलने और रहने की आज्ञा भी ले आया हूॅं।“

इस पर संन्यासी ने कहा कि अभी उसकी पात्रता बढ़ाने का प्रयास करना होगा। उन्होंने भोलानाथ को आसन व बीजमंत्र सिखाया व कहा - ”हम तुम्हारे गुरु नहीं हैं। शीघ्र ही तुम्हारी उनसे मुलाकात होगी। इतने घर रहकर इस आसन व मंत्र का अभ्यास करो। इससे तुम्हारे तन और मन की शुद्धि होगी। समय आने पर तुमको तुम्हारे गुरु के पास पहुॅंचा देंगे - इसके लिए निश्चिन्त रहो।“

स्वामी विशुद्धानन्द परमहंस - एक परिचय PART-2

)षिकेश ;निकट हरिद्वारद्ध के स्वर्गाश्रम से उत्तर भारत के अधिकाॅंश धार्मिक व्यक्ति परिचित होंगे परन्तु जिनकी पावन स्मृति में इस आश्रम का निर्माण हुआ है उनके व्यक्तित्व से बहुत ही कम लोग परिचित हैं। उनका असनी नाम है स्वामी विशुद्धानन्द परमहंस जन सामान्य जिन्हें प्यार से काली कमली वाले बाबा थे नाम से जानता है। विभिन्न मनीषियों ने इनको विभिन्न प्रकार के नामों से पुकारा है। अध्यात्म जगत् की प्रसिद्ध पुस्तक योगी कथामृत ;।नजवइपवहतंचील व िं
ल्वहपद्ध के लेखक श्री योगानन्द परमहंस ने अपनी पुस्तक में इनको गंध बाबा के नाम से सम्बोधित किया है तो एक अंग्रेज पत्रकार पाल ब्रंटन ने अपनी पुस्तक ‘गुप्त भारत की खोज’ ;प्द ैमंतबी व िैमबतमज प्दकपं। में इनको ‘बनारस के एक मायावी’ शीर्षक के अन्तर्गत रखा है। पाल ब्रटन एक उच्च प्रतिभा सम्पन्न ब्रिटिश पत्रकार थे जो भारत के योगियों के चमत्कारी किस्से सुनकर उनके विषय में अधिक जानकारी प्राप्त करने के उद्देश्य से भारत आए थे एवं भारतीय योगियों से प्रभावित हो देश-विदेश में हमारी संस्कृति का गुणगान करते घूमते थे।
स्वामी विशुद्धानन्द जी से किए साक्षात्कार के बारे में वो लिखते हैं कि स्वामी जी ने उनको बड़े प्रेम से अपने पास बैठाकर व अपनी करामात दिखाने के लिए उनसे रूमाल माॅंगा। अपना रूमाल दो, रेशमी हो तो अच्छा है। जैसे खूश्बू चाहते हो, पा सकते हो।“û रूमाल लेकर वह जादूगर बोला - ”कहिए कौन सी सुगन्ध चाहिए? मैं इसमें शीशे ;स्मदेद्ध की मदद से वह उत्पन्न कर सकता हूॅं।
जैसे ही पत्रकार ने बैले की सुगन्ध माॅंगी तो उन्होंने शीशे से सूर्य की किरणें उस पर थ्वबने कर रूमाल उनको वापिस कर दिया। पत्रकार आगे लिखते हैं - ”उसमें बैले की सुगन्ध भी। रूमाल को बड़े गौर से देखा। उसमें नमी नहीं थी न ही कोई इत्र छिड़का गया था। इस बार गुलाब की सुगन्ध माॅंगी गई। पुनः प्रयोग के उपरान्त जब रूमाल वापिस मिला तो उसमें गुलाब की खुशबू थी।“
अब पाल ब्रंटन महोदय हैरानी से उस काॅंच को स्मदे को अपने हाथ में लेकर देखने लगा तो वह एक साधारण काॅंच था। घर आकर पत्रकार ने वह रूमाल बहुत से लोगों को दिखाया सभी को वैसी खूश्बू आती मालूम पड़ी। अब पत्रकार के मन मे कुछ और चमत्कार देखने की इच्छा हुई तो उनको दूसरे दिन कड़ी धूप में आने को कहा गया।
अगले दिन नया प्रयोग आरम्भ हुआ। एक मृत गौरैया लाई गई व परीक्षण करने पर उसको मृत पाया गया। कुछ देर बाद जादूगर ने काॅंच निकाला व सूर्य किरणों को चिडि़याॅं की आॅंखों पर केन्द्रित किया। साथ-साथ कुछ अजीब भाषा में मंत्र पढ़ने लगे। थोड़ी देर बाद चिडि़या की लाश कुछ-कुछ हिलने लगी व पंख फड़फड़ाने लगी। कुछ समय पश्चात् फिर बंगले के पेड़ की डाल पर जा बैठी। पत्रकार महोदय का दिमाग चकरा गया व उनको अपना गुरु बनने का निवेदन करने लगे।
इस पर स्वामी जी ने मना कर दिया व कहा थ्क इसके लिए उन्हें तिब्बत ज्ञानगंज में रहने वाले अपने गुरु से अनुमति लेनी होगी।
पत्रकार ने प्रशन किया - ”आपके गुरु यदि सुदूर तिब्बत में हैं तो आप उनसे अनुमति कैसे ले सकते हैं?“
उन्होंने जवाब दिया - ”हम दोनों के बीच आत्मिक जगत् में व्यवहार अच्छी तरह चलता है।“
इसके बाद पाल ब्रंटन ने अनेक महत्त्वपूर्ण प्रश्न किए जिसका उत्तर स्वामी जी ने दिया। उन्हें मालूम हुआ कि स्वामी जी शून्य से अॅंगूर, मिठाईयाॅं उत्पन्न कर सकते हैं। यहाॅं की सामग्री को तिब्बत भेज सकते हैं, मुरझाएॅं फूलों को हरा-भरा कर सकते हैं। इस प्रकार पाल ब्रंटन ने अपनी भारत यात्रा के दौरान भारतीय योगियों की अनेक महत्त्वपूर्ण घटनाएॅं देखी व उनका अपनी पुस्तक में उल्लेख किया। उनकी मुलाकात एक ऐसे योगी से हुई थी जिनकी उम्र 400 वर्ष थी। उन्होंने
पानीपत का प्रथम युद्ध ;सन् 1526ई.द्ध व पलासी का युद्ध ;सन् 1757 ई.द्ध स्वयं देखा था। यह सर्वविदित है कि अब से 150 वर्ष पूर्व लोकनाथ ब्रह्मचारी व तैलंग स्वामी 300 वर्ष के आस-पास जीवित रहे।
स्वामी जी का जन्म बंगाल प्रान्त के वर्धमान जिले में बंडुल गाॅंव के एक ब्राह्मण परिवार में सन् 1853 ई. में हुआ था। इनके पिता श्री अखिल चन्द्र चट्टोपाध्याय व माता राजराजेश्वरी देवी ने इनके भोले स्वभाव के कारण इनका नाम भोलानाथ रखा। यह बालक सामान्य शिशुओं की भान्ति न तो रोता था न व्याकुलता प्रकट करता था। बचपन ही पिता की मृत्यु होने पर इनका लालन-पालन
माता व चाचा चन्द्रनाथ ने किया। बचपन से ही इनको साधुओं के दर्शन व सत्संग व एकान्त सेवन में विशेष रुचि थी। जब भी अवसर मिलता भोलानाथ गाॅंव के पास शमशान में एक वट वृक्ष के नीचे बैठ कर ध्यान करते थे। इनकी आसाधारण बाल्य प्रवृत्तियों से लोगों ने अनुमान लगा लिया था कि यह बालक अवश्य ही आगे चलकर कोई सिद्ध महापुरुष बनेगा।
एक दिन जब ये सात वर्ष के थे सायं में इन्होंने सुना कि शमशान में कोई विचित्र संन्यासी आया है तो लोगों के पास आता उन पर ढेले फेंकता है कोई भी उनके पास जाने की हिम्मत नहीं कर पाया। इन्होंने संन्यासी से मिलने की इच्छा प्रकट की। घरवाले रात्रि में उन्हें शमशान जाने कैसे दे सकते थे? इन्होंने अपनी माता के पास सोने का अभिनय किया व माॅं के सो जाने पर अकेले रात्रि के
अॅंधेरे सन्नाटे में शमशान के लिए निकल पड़े। साधु-सन्तों के दर्शनार्थ खाली हाथ नहीं जाना चाहिए इसलिए गोशाला से एक पका कटहल कन्धे पर उठा लिया। दो मील की उळॅंची-नीची राह पार कर जब वह शमशान भूमि पहुॅंचे तो दूर से लपटें बिखेरता एक अग्नि पिण्ड दिखाई दिया। भोलानाथ समझ गए कि संन्यासी ने धूनी की आग से ये लपटें निकल रही हैं। पास आने पर देखा तो ये आग की लपटें संन्यासी के शरीर से निकल रही थी। क्षण भर के लिए बालक डरके मारे गुमसुम हो गया। जैसे ही संन्यासी ने बालक को देखा तो एक पत्थर उठाकर इनको मारने चले। यह देख भोलानाथ ने वहीं पड़े बाॅंस को उठा लिया जिससे संन्यासी का मुकाबला कर सकें। संन्यासी बालक के अद्भुत साहस को देखकर चकित हो गए व उन्हें प्रेम से अपने पास बुलाया।
भोलानाथ बोले - ”पहले तुम अपने हाथ से पत्थर फैंको, तब मैं बाॅंस फेंकूॅंगा।“ संन्यासी ने पत्थर छोड़ा व भोलानाथ ने बाॅंस तथा दोनों का मेल हो गया व बातचीत प्रारम्भ हो गई। भोलानाथ ने पूछा कि वो ऐसा अशिष्ट व्यवहार क्यों करते हैं? संन्यासी ने उत्तर दिया, ”जनसामान्य से दूरी बनाकर रखने के लिए“ भोलानाथ ने श्रद्धापूर्वक कटहल भेंट किया व संन्यासी ने देखते-देखते वह पाॅंच-सात सेर का कटहल कच्चा ही खा डाला। भोलानाथ ने जब संन्यासी की बातों से प्रभावित होकर उनके साथ रहने का अनुरोध करने लगा तो संन्यासी ने उनको समझाया, ”बालक! इतनी छोटी अवस्था में ही, इस भयानक अंधेरी रात में निर्जन अरण्य और घोर शमशान में तुम मेरे पास आ पहुॅंचे, आश्चर्य है। तुम अभी अपने असली रूप् को नहीं पहचानते। समय आने पर अपने आस्तित्व
को समझ सकोगे।“
यह संन्यासी कोई साधारण व्यक्ति नहीं वरन् तिब्बत में स्थित ‘गुप्त योगाश्रम -ज्ञानगंज’ के पूज्य अभयानन्द जी थे जिन्होंने बालक के सर्वप्रथम उनके विशेष योगी व विशेष जीवन को बोध कराया था। संन्यासी से विदा लेकर बालक भोलानाथ भागता हुआ घर आया। वहा आशंकित था कि कहीं घर में उनकी खोज न हो रही हो। रात के तीन बज चुके थे। परन्तु घर में सब गहरी नींद में सोए
थे यह देखकर ईश्वर को धन्यवाद देकर बालक चुपचाप अपनी माॅं की बगल में जाकर सो गया।

तेरह वर्ष की उम्र तक भोलानाथ कोई वस्त्र नहीं पहनते थे। यदि उन्हें डाट-डपट कर धोती पहना दी जाती तो उसे दान कर देते थे। चाचा चन्द्रनाथ ने इनको अंग्रजी शिक्षा देने का पूरा प्रयत्न किया परन्तु ये अंग्रेजी नहीं पढ़ पाए । अपितु नवद्वीप के तत्कालीन विख्यात विद्वान प. विद्यारत्न महाश्य से इन्होंने थोड़े ही समय में अपनी आलौकिक प्रतिभा से संस्कृत व शास्त्रों का उचित ज्ञान प्राप्त कर लिया था।

सूर्य विज्ञान प्रणेता स्वामी विशुद्धानन्द परमहंस (काली कमली वाले बाबा) PART-1

ऐसे महापुरुष की जीवनी प्रस्तुत करना सहज नहीं है जिनकी ख्याति पूरे भारत में सूर्य विज्ञान के प्रणेता के रूप् में फेली हुई है। योग और विज्ञान दोनों ही विषयों के पारंगत इन विलक्ष्ण महापुरुष के लिए कुछ भी असम्भव नहीं था। प्रकृति, काल और स्ािान सब उनकी इच्छा शक्ति के अनुचर थे। विज्ञान के क्षेत्र में इनकी उपलब्धि इतनी असाधारण थी कि सूर्य की किरणें को एक  Convex Lens के द्वारा रूमाल, रूई आदि पर संकेन्द्रित कर वे मनोवांछित धातुओं, मणियों तथा अन्य पदार्थों का सृजन करने में समर्थ थे। एक वस्तु को दूसरी वस्तु में परिवर्तित करना उनके बाएॅं हाथ का खेल था। आश्चर्य की बात यह है कि यह सब इन्होंने हिमालय के एक दिव्य आश्रम ज्ञानगंज में 12 वर्षों के अध्ययन के उपरान्त सीखा। उस समय इनके दीक्षा गुरु स्वामी भृगुराम देव की आयु 500 वर्ष से अधिक व दादा गुरु महातपा जी महाराज की आयु 1300 वर्षों के आसपास मानी जाती थी।

इस आश्रम में हजारों तपस्वी सृष्टि के गूढ़ रहस्यों पर शोधरत हैं तथा यहाॅं विभिन्न प्रकार के ज्ञान-विज्ञान इतने उच्च स्तर पर आविष्कृत हैं जिनकी हम कल्पना नहीं कर सकते। यहाॅं के महान वैज्ञानिकों का मानना है कि योग बल से कोई भी निर्जीव वस्तु या संजीव प्राणी प्राप्त या प्रकट किया जा सकता है। स्वामी जी के अनुसार ज्ञानगंज में अपने नाम के अनुरूप सूर्य विज्ञान, चन्द्र विज्ञान, वायु विज्ञान, स्वर विज्ञान, शब्द ज्ञान व क्षण विज्ञान जैसी अनेकों धाराओं पर गहन शोध कार्य चल रहा है। इस आश्रम की एक और विलक्ष्णता भी है कि यह एक विशेष आयाम पर तिब्बत के आस-पास इस प्रकार गुप्त रूप् से स्ािापित व संचालित है कि कोई भी अपनी ईच्छा से यहाॅं नहीं जा सकता। जिसका चयन होता है वही यहाॅं तक महागुरुओं की इच्छा से इस सिद्ध स्ािली के दर्शन कर सकता है।
अपनी योग विभूतियों ;सिद्धियोंद्ध के सम्बन्ध में बाबा ने एक दिन अपने शिष्यों से कहा था, ”बचपन में मैं विभूतियों की बात पर विश्वास नहीं करता था। इस विषय में शास्त्रों में जो लिखा है उसे काल्पनिक कहानी समझता था। किन्तु ज्ञानगंज में जाने पर देखा कि वहाॅं सब कुछ विचित्र ही है। वह जैसे कोई मायापुरी हो। वहाॅं क्या होता है और क्या नहीं, उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। वह सब शक्ति का चमत्कार देखकर उसे प्राप्त करने का दृढ़ संकल्प मन में पैदा हो गया। जब वे सब शक्तियाॅं मुझे कठिन तप के उपरान्त प्राप्त हो गई तब उन्हें लोगों को दिखाने का चाव लगा। बहुत कुछ मैंने दिखाया भी, इसलिए कि उन्हें देखकर लोगों में यह विश्वास जगे कि हमारे शास्त्र सत्य हैं।“
ये सभी बातें हम जैसे मनुष्योंके मन में यही शक प्रस्तुत करती हें कि क्या यह सब कुछ भी सम्भव है? परन्तु जो लोग स्वामी विशुद्धानन्द परमहंस जी के सम्पर्क में आए उनके चमत्कारों व शक्तियों को देख मन में श्रद्धा विश्वास लेकर लौटे। सचमुच मानव जीवन में उळॅंचाईयों को प्राप्त करने के अगणित आयासम उपस्थित हैं फिर भी हम अपनी मूर्खताओं से अपने लिए विभिन्न समस्याओं, कष्टों, रोगों को आमन्त्रण देते रहते हैं। स्वामी जी को भारत की जनता अनेक नामों जैसे
काली कमली वाले बाबा’, ‘गंध बाबा’ आदि के नाम से जानती है। स्वामी जी ने अंग्रेजों से प्रताडि़त निराश भारत के मन में आशा व उत्साह का एक नया दीप जलाया जिससे भारत पुनः अपने ज्ञान, विज्ञान, योग एवं तप साधनाओं के द्वारा पूरे विश्व में जगद्गुरु के रूप् में अपनी प्रतिष्ठा प्राप्त कर सके।
इसी प्रेरणा से लाखों लोग यो व तप के महान पथ पर चलने के लिए संकल्पित हुए। योग व तन्त्र के परम विद्वान प्.गोपीनाथ जी कविराज बाबा के प्रधान शिष्यों में से एक ये जिन्होंने पूरी दुनियाॅं के सामने इन ज्ञान-विज्ञान का प्रचार प्रसार किया। एक बार बाबा जी के गुरु श्री भृगुराम परमहंस जी ने उनको ज्ञानगंज से प्त्र लिखकर सूचित किया था - ” विशुद्धानन्द! तुमने जो वर्तमान समय में शिष्य किए हैं, उन सबका निरीक्षण मैं प्रतिदिन ही करता हूॅं, सम्यक दृष्टि से हर एक के घर जाता हूॅं। मैं सबको देखता हूॅं, तुम्हें इन लोगों की चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं। तुम्हारें 697 शिष्यों में से 432 श्रेष्ठ हैं। उनको 4 वर्षों में सब कुछ प्रत्यक्ष होगा और सिद्धि लाभ होगा।“ सुनते हैं कि जब भी बाबा जी किसी को शिष्य बनाते थे पहले ज्ञानगंज से उसकी स्वीकृति आती थी।
एक बार देश, धर्म और समाज की दुर्दशा देखकर शिष्यों ने अपनी निराशा बाबा के सम्मुख रखी। इस पर उन्होंने दृढ़तापूर्वक उत्तर दिया, ” चिन्ता का कोई कारण नहीं है। हम लोग धीरे-धीरे मंगल की ओर ही बढ़ रहे हैं। हिन्दू धर्म का लोप होने को नहीं है। जो लोग इसके विनाश का प्रयास करेंगे उनका ही सर्वनाश हो जाएगा। ”द्वितीय विश्वयुद्ध के बारे में उन्होंने पाॅंच वर्ष पूर्व ही बता दिया था यह घटना उस समय की है जब इटली ने अबीसीनिया पर हमला किया था। समाचार प्त्र प्ढ़ कर बाबा के एक शिष्य श्री अमूल्य कुमार दत्त गुप्त ने बाबा से इस विषय में चर्चा की तो बाबा बोले, ”यह तो कुछ भी नहीं है। एक बड़ा युद्ध आ रहा है, जिसमें अंग्रेज भी शामिल हो जाएॅंगे। उस समय अंग्रेज झूठी बातों से हमें ठगने की कोशिश करेंगे।“ यह सर्वविदित है कि कांग्रेस की सहानुभूति और सहायता पाने के लिए क्रिप्स साहब बहुत से अच्छे प्रस्ताव लेकर भारत आए थे।
इस प्रकार हम देखते हैं कि इन योगियों की दृष्टि देश, समाज और पूरे विश्व की हलचलों पर लगी रहती थी और असंतुलन व विनाश को रोकने के लिए मैं अपने तपोबल का प्रयोग करते थे।“

हम भारतीय अपने प्रेमाश्रुओं से ऐसे महान पुरुषों को सदा याद करते रहेंगे व उनसे यह विनीत प्रार्थना करते रहेंगे कि हमारे जीवन में भी उनकी महान अनुकम्पा में ज्ञान विज्ञान व साधना का अवतरण हो जिससे हम अपने मानव जीवन के सफल बना सकें।