Tuesday, July 26, 2016

एसिडिटी के कारण, लक्षण, और उपचार

हम जो खाना खाते हैं, उसका सही तरह से पचना बहुत ज़रूरी होता है। पाचन की प्रक्रिया में हमारा पेट एक ऐसे एसिड को स्रावित करता है जो पाचन के लिए बहुत ही ज़रूरी होता है। पर कई बार यह एसिड आवश्यकता से अधिक मात्रा में निर्मित होता है, जिसके परिणामस्वरूप सीने में जलन और फैरिंक्स और पेट के बीच के पथ में पीड़ा और परेशानी का एहसास होता है। इस हालत को एसिडिटी या एसिड पेप्टिक रोग के नाम से जाना जाता है ।
एसिडिटी होने के कारण
एसिडिटी के आम कारण होते हैं, खान पान में अनियमितता, खाने को ठीक तरह से नहीं चबाना, और पर्याप्त मात्रा में पानी न पीना इत्यादि। मसालेदार और जंक फ़ूड आहार का सेवनकरना भी एसिडिटी के अन्य कारण होते हैं। इसके अलावा हड़बड़ी में खाना और तनावग्रस्त होकर खाना और धूम्रपान और मदिरापान भी एसिडिटी के कारण होते हैं। भारी खाने के सेवन करने से भी एसिडिटी की परेशानी बढ़ जाती है। और सुबह सुबह अल्पाहार न करना और लंबे समय तक भूखे रहने से भी एसिडिटी आपको परेशान कर सकती है।
एसिडिटी के लक्षण
*.पेट में जलन का एहसास
*.सीने में जलन
*.मतली का एहसास
*.डीसपेपसिया
*.डकार आना
*.खाने पीने में कम दिलचस्पी
*.पेट में जलन का एहसास
एसिडिटी के उपचार
*.अदरक का रस:नींबू और शहद में अदरक का रसमिलाकर पीने से, पेट की जलन शांत होती है।
*.अश्वगंधा:भूख की समस्या और पेट की जलन संबधित रोगों के उपचार में अश्वगंधा सहायक सिद्ध होती है।
*.बबूना:यह तनाव से संबधित पेट की जलन को कम करता है।
*.चन्दन:एसिडिटी के उपचार के लिए चन्दन द्वारा चिकित्सा युगों से चली आ रही चिकित्सा प्रणाली है। चन्दन गैस से संबधित परेशानियों को ठंडक प्रदान करता है।
*.चिरायता:चिरायता के प्रयोग से पेट की जलन और दस्त जैसी पेट की गड़बड़ियों को ठीक करने में सहायता मिलती है।
*.इलायची:सीने की जलन को ठीक करने के लिए इलायची का प्रयोग सहायक सिद्ध होता है।
*.हरड: यह पेट की एसिडिटी और सीने की जलन को ठीक करता है ।
*.लहसुन:पेट की सभी बीमारियों के उपचार के लिए लहसून रामबाण का काम करता है।
*.मेथी:मेथी के पत्ते पेट की जलन दिस्पेप्सिया के उपचार में सहायक सिद्ध होते हैं।
*.सौंफ:सौंफ भी पेट की जलन को ठीक करने में सहायक सिद्ध होती है। यह एक तरह की सौम्य रेचक होती है और शिशुओं और बच्चों की पाचन और एसिडिटी से जुड़ी समस्याओं को दूर करने के लिए भी मदद करती है।
एसिडिटी के घरेलू उपचार:
*.विटामिन बी और ई युक्त सब्जियों का अधिक सेवन करें।
*.व्यायाम और शारीरिक गतिविधियाँ करते रहें।
*.खाना खाने के बाद किसी भी तरह के पेय का सेवन ना करें।
*.बादाम का सेवन आपके सीने की जलन कम करनेमें मदद करता है।
*.खीरा, ककड़ी और तरबूज का अधिक सेवन करें।
*.पानी में नींबू मिलाकर पियें, इससे भी सीने की जलन कम होती है।
*.नियमित रूप से पुदीने के रस का सेवन करें ।
*.तुलसी के पत्ते एसिडिटी और मतली से काफी हद तक राहत दिलाते हैं।
*.नारियल पानी का सेवन अधिक करे.

अवरुद्ध धमनियों को साफ़ करने के लिए प्राकृतिक उपचार

निम्न सामग्री एकत्रित करें

लहसुन का रस - 1 कप
अदरक का रस - 1 कप
नींबू का रस - 1 कप
सेब का सिरका - 1 कप

इन सबको मिला कर धीमी आँच पर इतना उबालें जिससे इसका तीन चौथाई हिस्सा ही बचे| इसके ठंडा होने पर इसमें 1 कप शहद मिला लें और किसी शीशे के जार में भर के रख लें|

इस मिश्रण को रोज़ सुबह निहार मुँह 3 से 4 छोटी चम्मच नियमित रूप से लेते रहें| अप्रत्याशित रूप से लाभ मिलेगा|

मेरी उम्र 76 वर्ष है| मेरी धमनियों में 8 जगह पर ब्लॉकेज था| में स्वयं इसे पिछले 3 महीनों से नियमित रूप से ले रहा हूँ एवं मुझे इस देसी इलाज़ से बहुत लाभ है|


thanks:http://desiilaaz.com/

मधुमेह के इलाज़ मे एक महाखोज




 क्या १० मिनट तक उबले गेंहू में अंकुरण हो सकता है ?
जिन लोगों ने कर के देखा है, उनके अनुसार 100 % नहीं हो पाता परंतु होता ज़रूर है




Friday, July 15, 2016

योग वसिष्ठ- हर नारी है आत्मज्ञान की अधिकारी

इसे आरम्भ करते हुए गुरुदेव वसिष्ठ ने श्रीराम और कथा में उपस्थित अन्य सभी से कहा-‘‘रानी चुड़ाला की कथा बड़ी प्रेरक और पावन है। इस कथा का घटनाक्रम इस सत्य को प्रकाणित करता है कि आत्मज्ञान प्राप्त करने और योगााभ्यास करके सब विभूतियाँ एवं अलौकिक शक्तियाँ प्राप्त करने का स्त्रियों को उतना ही अधिकार है, जितना कि पुरुषों को। वैसे भी आध्यात्मिक ज्ञान तो प्राणिमात्र के लिए है। यदि स्त्री आत्मज्ञान में स्थित हो जाए तो वह अपने पति को अथवा अन्य किसी पुरुष को उसी प्रकार आत्मज्ञान का लाभ करा सकती है, जैसा कि एक पुरुष दूसरे पुरुष को करा सकता है।’’ इतना कहकर ऋषि वसिष्ठ ने श्रीराम की ओर सारगर्भित दृष्टि से देखा और कहा-‘‘ रानी चुड़ाला की कथा में न केवल आत्मोपलब्धि का सच्चा मार्ग है, बल्कि आत्मज्ञानी की जीवनशैली भी है।’’
      वसिष्ठ ऋषि के इन वचनों को सभी ध्यानपूर्वक सुन रहे थे। रानियों एवं अन्य नारियों ने इस तत्त्व को सुनकर प्रसन्नता की अनुभूति प्राप्त की कि नारियाँ परुषों की ही भाँति आत्मज्ञान की योग्य अधिकारी हैं। नारी हृदयों में पुलकन को प्रस्फुटित करते हुए ब्रह्मर्षि कह रहे थे-‘‘ वर्षों पूर्व की बात है, जब मालव देश में शिखिध्वज नाम का एक बहुत सुंदर, बलवान और प्रतापी राजा राज्य करता था। उसका विवाह सौराष्ट देश की राजकन्या से हुआ। वह बहुत सुंदर, विदुषी और बुध्दिमान थी। इस राजरानी का नाम चुड़ाला था। राजा शिखिध्वज एवं रानी चुड़ाला में एक दूसरे के प्रति घनिष्ठ प्रेम व आकर्षण था। दोनों ही अपनी युवावस्था के दौर में थे। उनके जीवन में वे खूब आनंद से जीवन के सभी प्रकार के सुख, भोग रहे थे।
      सुखों को भोगते हुए भी उन दोनों के मन में गहन विचारशीलता थी। इसी विचारशीला के कारण सब प्रकार के भोगों को भोगते-भोगते एक दिन उनके मन में यह विवेक उत्पन्न हुआ कि हमारे पास संसार का सारा ऐश्वर्य और सारे भोगों को भोगने के साधन हैं। हम लोग एब प्रकार के भोगों का बार-बार आस्वदान भी कर चुके हैं। इन्हें भोगने में हमारा बहुत सा जीवन व्यतीत हो चुका हैं। अब तो शरीर की सारी शक्ति भी क्षीण हाने लगी है, लेकिन तब भी हृदय की तृप्ति और शांति नहीं है। क्या सचमुच मनुष्य जीवन इसीलिए है कि सदा ही यह शरीर और इंद्रियों के सुखों को अनुभव करने में लगा रहे और फिर भी उसको किसी स्थायी सुख, किसी प्रकार की तृप्ति और शांति का अनुभव न हो। विषयों के द्वारा उत्पन्न होने वाले सभी सुख क्षणिक और दुःख में परिणत होने वाले हैं। फिर भला कौन सा सुख है, जो चिरस्थायी है?
      इस प्रश्न के उत्तर के लिए उन्होंने विद्वाानों से परामर्श करने का निश्चय किया। उनके प्रश्न के उत्तर में विद्वानों ने उनसे कहा-‘‘ आत्मज्ञान हो जाने पर मनुष्य को परमशांति और परमतृप्ति का अनुभव होता है। वही प्राप्त कर लेना मनुष्य जीवन का चरम लक्ष्य है। आत्मज्ञान में स्थित हो जाने पर परमानंद का अनुभव होता है। उस आनंद के सामने संसार के सब विषयों को भोगने के सुख कुछ भी नहीं हैं। आत्मपथ में स्थित मनुष्य सदा ही तृप्त और सुखी रहता है। वह न किसी वस्तु को प्राप्त करने की इच्छा करता है और न ही किसी से घृणा करता है।’’
      यह सुनकर राजा शिखिध्वज एवं रानी चुड़ाला ने आत्मज्ञान प्राप्त करने का निश्चय किया। राजा की अपेक्षा रानी अधिक बुध्दिमती और उद्योगशील थी। उसके विचार अधिक सूक्ष्म और निश्चयात्मक थे। इसी कारण उसे थोड़े ही समय में आत्मज्ञान हो गया। आत्मज्ञान हाने पर उसके मुख पर प्रसन्नता और अलौकिक सौंदर्य की झलक आ गई। दिन-पर-दिन उसका सौंदर्य, तेज और आनंद बढ़ने लगा। अभी राजा को आत्मज्ञान नहीं हुआ था। वह समझ न सका कि रानी इतनी प्रसन्न और प्रफुल्लित क्यांे है? रानी ने राजा को बतलाया कि उसके हृदय में अलौकिक आनंद का प्रकाश हो गया है। अब उसे सारा जगत आनंदमयी ही दिखाई दे रहा है। राजा की समझ में रानी की यह बात न आती थी, क्योंकि जिसने आत्मानंद का स्वयं अनुभव न किया हो, उसके लिए यह जान पाना संभव नहीं कि आत्मानंद क्या है।
      श्रानी ने अपने पति को आत्मानुभव प्राप्त करने में सहायता देने की बहुत कोशिश की, किंतु राजा ने उसे अपनी पत्नी समझकर उसकी विशेष परवाह न की। उसके मन मे यही मिथ्याभिमान बना रहता था कि पुरुष, स्त्री से अधिक समर्थ और प्रज्ञावान होता है। इसी अभिमान के कारण अनेक प्रयत्न करने के बावजूद राजा शिखिध्वज को आत्माान न हुआ। इसके लिए वन में जाने और एकांत साधना करने का निश्चय किया। रानी जब प्रातः जागी तो उसने राजा को भवन में न पाया। अंत में उसने योगबल से सारी वास्तविक स्थिति ज्ञात कर ली, परंतु उसने सभी राजपुरुषों एवं राज्य के निवासियों को यह नहीं बताया कि महाराज ने राज्य का त्याग कर दिया है, वरन उसने सबको यह सूचित किया कि महाराज आवश्यक कार्य हेतु अभी राज्य से बाहर गए हैं एवं कुछ दिन उपरांत लौटेंगे। राजा शिखिध्वज की अनुपस्थिति में रानी चुड़ाला स्वयं कुशलतापूर्वक राज्य का संचालन करने लगी।
      आत्मज्ञान होने के साथ ही रानी चुड़ाला योग की विभूतियों एवं शक्तियों से भी संपन्न थी। इसीलिए एक दिन उसने योगबल से ऋषिपुत्र का वेशा धारण किया और राजा के पास वन में पहुँच गई। उसने अपना परिचय ऋषिकुमार कुंभज के रूप में राजा को दिया। कुंभज के रूप में रानी चुड़ाला ने राजा को आत्मज्ञान संबंधी अनेक प्रकार की बातें सुनाईं और साथ ही उन्हें साधना की अनेक विधियाँ भी बतलाईं।
      इस उपदेश का पालन करने के बाद राजा को धीरे-धीरे आत्मज्ञान होने लगा। आत्मज्ञान के परिपक्व हो जाने पर उसकी स्थिति आत्मभाव  में हो गई और वह जीवनमुक्त हो गया। अब उसके मुख पर सदैव प्रसन्नता रहती थी। हर्ष और शोक से वह परे था। किसी कारण से उसकी शांति भंग न होती थी। हर हालत में वह खुशहाल रहता था। उसके लिए न कुछ हेय था और न उपादेय। वह सदा आत्मानंद में मग्न रहता था। संसार के किसी सुख की न तो उसे वासना थी और न ही वह किसी दुःख से दुःखी रहता था।
      अब रानी ने राजा की जीवनमुक्त स्थिति की परीक्षा लेने के लिए कई आयोजन किए। उसने अपनी योगशक्ति से राजा की सब प्रकार से परीक्षा ली। राजा सब प्रकार से अविचलित रहा। सुख-दुःख, हानि-लाभ उसमे कोई उद्वेग न कर सके। सब प्रकार से राजा की जीवनमुक्त स्थिति के बारे में संतुष्ट हो जाने पर रानी चुड़ाला ने राजा को अपना वास्तविक परिचय दिया। यह परिचय पाकर राजा ने रानी के प्रति कृतज्ञता प्रकट की। बाद में रानी के कहने पर वह अपनी राजधानी वापस लौट आए और जीवनमुक्त की भाँति राज्य का कार्य करने लगे।
      इस कथा को सुनाकर ब्रह्मर्षि वसिष्ठ ने श्री राम और अन्य सभी से कहा-
      शास्त्रार्थ गुरुमन्त्रादि तथा नोत्तरक्षणमम्।
      यथैता स्नेहशालिन्यो भतृणां कुलयोषितः।।

      अर्थात शास्त्र, गुरु, मंत्र आदि सभी साधन मिलकर भी उस मोहसागर से पार कराने में इतने समर्थ नहीं हैं, जितनी कि स्नेह से भरी हुई फुलवारियाँ। इसलिए स्त्रियों को कभी भी निरादर की दृष्टि से नहीं देखना चाहिए। जो अच्छे कुल की संस्कारवान कन्याएँ होती हैं, वे अपने पति को संसारसागर से पार करने में सहायता करती हैं।

Wednesday, July 6, 2016

मनोकायिक रोग और योग (Psychosomatic Diseases)

    आज के समाज में बढ़ती हुई अनैतिकता और असामाजिकता के कारण मानव मानसिक और शारीरिक बीमारियों से घिरता जा रहा है। बीमारियां पैदा करने में शरीर की तुलना में मन हजार गुना अधिक शक्तिशाली है। उसी प्रकार शरीरिक रोगों की तुलना में मानसिक रोगों से होने वाली क्षति भी अत्यधिक है। मनौकायिक रोग वे कहलाते हैं जो मन से शुरू होकर शरीर में आते हैं। ऐसे रोग मन और शरीर दोनों को रोगी बना देते हैं। शरीर रोगी रहे लेकिन मस्तिष्क स्वस्थ हो तो मनुष्य अनेक मानसिक पुरुषार्थ कर सकता है किन्तु यदि मस्तिष्क विकृत हो जाए, तो शरीर के पूर्ण स्वस्थ होने पर भी सब कुछ निरर्थक हो जाता है। अधिकांश रोगों का जन्मदाता हमारा मन है, जिसके बारे में वैज्ञानिक और डाॅक्टर बहुत कम बात करते हैं। मन का साम्राज्य बहुत तेजी से फैलता है। काम, क्रोध, मोह, लोभ, द्वेष आदि मानसिक विकार नकारात्मकता पैदा करते हैं। इन सबके कारण चिन्ता, भय, आशंका, असंतोष, निराशा, उदासी, उद्वेग, आत्महीनता, अपराध प्रवृति आदि किसी भी वृति का जब आदमी पर नियंत्रण हो जाता है, जब मन संस्थान का संतुलन बिगड़ जाता है। नकारात्मकता विचारों में लम्बे समय तक बनी रहे तो शरीर और मन अनेक व्याधियों, जैसे कि तनाव (Stress), चिंता (anxiety), अवसाद (depression), सनक (obession), भ्रम (delusionephobia), मति भ्रम (hallucination), आक्रामकता (agression) आदि शरीर में घर कर लेते हैं। भावनाओं और दबी हुई इच्छाओं के शक्तिशाली वृत्त बनते जाते हैं। भंवर से पीड़ित व्यक्ति बाहर नहीं निकल पाता है। जब व्यक्ति और विचार-शक्ति शिथिल होने लगती हैं, तब उसे अपने नीरस जीवन में अपात्तियां, कठिनाइया और असफलताएं ही दिखाई देती हैं। मनोकायिक रोगों की गहराई पीड़ित व्यक्ति के मन और विचार के मध्य बने रिश्ते की घनिष्ठता पर निर्भर करती है। 
 मनोकायिक रोगों का कारण मन की परतों के नीचे दबी हुई भावनाएं, इच्छाएं, कामनांए, कुंठाएं इत्यादि होती है। नकारात्मक भावनाएं सोच पर पूरा अधिकार जमा लेती हैं। लम्बे समय तक दुविधा में उलझा व्यक्ति यह निर्णय नहीं कर पाता कि इन इच्छाओं को पूरा करूं भी कि नहीं। अपनी दबी भावनाओं का वह दूसरों के सामने वर्णन भी नहीं करना चाहता तथा ‘करूं या न करूं’ के असमंजस में सोचने की अपनी आदत को छोड़ना भी नहीं चाहता। न चाहते हुए भी मन और विचार की दोस्ती गहरी हो जाती है। आदत जितनी पुरानी होती है, दोस्ती उतनी ही घनिष्ठ होती है। विचार और मन के बीच की घनिष्ठता पीड़ित व्यक्ति को आदत बदलने में असमर्थ और असहाय बनाती है। कमजोर इच्छा-शक्ति के आगे उसका शरीर और मन इसे कभी न जाने वाला रोग मान लेता है। हतोत्साहित पीड़ित व्यक्ति ठीक होने की उम्मीद ही छोड़ देता है।
 शरीर नकारात्मक विचारों को अपने ऊपर हमला मान लेता है। रक्षा प्रणाली विचारों के इस भंवर से शरीर का बचाने के लिए शक्तिशाली हाॅर्मोन्स का स्त्राव रक्त में उँडेलती है। इसकी एडिनल ग्रन्थियों से  लगातार काॅर्टिसोल हार्मोन का स़्त्राव आरम्भ हो जाता है। यह हार्मोन लीवर में पहुंच कर उसमें जमा ग्लाइकोजन को शर्करा में बदल देता है। इससे शरीर में ऐंठन, जकड़न, कड़ापन और तनाव बढ़ते जाते हैं। पीड़ित व्यक्ति की रक्त संचालन क्रिया तथा हृदय गति बढ़ जाती है। वह कभी ब्लड प्रैशर, कभी हृदय रोग तो कभी नाभि गिर गई का इलाज कराता घूमता रहता है। पीड़ित व्यक्ति यह समझ नहीं पाता कि रोग कहां है और इलाज क्या है। असहाय -सा वह मन का रोगी शरीर को भी रोगी बना लेता है। दवाइयां मदद करती हैं लेकिन रोग मुक्त नहीं करती। ऐसे रोगों का इलाज मन को ठीक करे बिना संभव नहीं होता है। 
उपचार- सर्वप्रथम मन और विचारों की दोस्ती को तोडने का प्रयास करें। इस सच्चाई पर विश्वास करें कि नकारात्मक विचार किसी का कल्याण नहीं कर सकते। इस विश्वास को स्थापित करने के लिए लम्बा समय चाहिए। नकारात्मकता का परिणाम सदैव अज्ञानता और दुःख ही होता है। सोचने की इस आदत को बदलने के लिए अपने इष्टदेव पर या ईश्वर की शरणागत हो जाएं। ईश्वर पर किया गया विश्वास अपने स्वयं के कई बार करना पडे़गा, लम्बे समय तक करना पडे़गा। अभ्यास से ऊबें नहीं, छूट जाए तो फिर आरम्भ कर दें। अपना धैर्य, विश्वास बनाए रखें। नकारात्मक विचारों के प्रतिपक्ष सकारात्मक विचार पैदा करें। इन पहले दो चरणों का अभ्यास अति आवश्यक है।
 विचारों को सकारात्मक बनाने में आसन अत्यन्त सहायक होते हैं। लम्बे समय से नकारातमक विचारों के शरीर पर बने दुष्प्रभाव के कारण मांसपेशियां, नस-नाड़ियां ऐंठ जाती हैं एवं काॅटिसोल हार्मोन का स्त्राव रक्त को विषाक्त कर देता है। आसनों से अकड़न-जकड़न समाप्त कर देता है। रक्त का संचरण कोशिकाओं से विषैले पदार्थो को बाहर निकाल देता है। आसनों के अभ्यास के बाद किया गया प्राणायाम का अभ्यास मस्तिष्क में फैले न्यूराॅन के जाल को ढीला कर देता है। प्राणायाम के अभ्यास से न्यूराॅन पर छाए आवरण उतर जाते हैं। आसन और प्राणायाम का अभ्यास शरीर में आॅक्सीटोन (Oxytone) के स़्त्राव को बढ़ा देता है। 
 यह हार्मोन शरीर को हल्का और निर्मल करता है तथा शरीर और मन में सकारात्मक ऊर्जा का संचार करता है। जैसे-जैसे इस हाॅर्मोन का स्त्राव शरीर में बढ़ता है, पीड़ित व्यक्ति का हौसला और विश्वास भी उसी अनुपात में बढ़ता है।
क्रिया- योग का अभ्यास मनोकायिक रोगो को जड़मूल से समाप्त कर देता है। अपने अभ्यास में चार बातों पर लगाता ध्यान बनाएं-
1. सर्वप्रथम विचारों को बदलने का अभ्यास, जिसके लिए आसन और प्राणायाम का सहारा अत्यन्त आवश्यक है।
2. दूसरा, शिथिलीकरण की क्रियाएं, जिसमें शवासन तथा योग निद्रा का अभ्यास साथ-साथ बनाए रखें। इससे मन और शरीर के तनाव धीमे पड़ जाते है। हार्मोन के स्त्राव बदल जाते हैं और एक नई ऊर्जा का संचार होने लगता है।
3. तीसरा, भोजन की सात्विकता की ओर सजग रहें। भोजन शरीर की आवश्कतानुसार तथा मौसमानुसार करने से पाचन के तनाव कम हो जाते हैं।
4. चैथा, सजगता-पूर्वक ध्यान के अभ्यास से पीड़ित व्यकित में ईश्वरीय शक्तियों का उदय होता है। 

केवल ध्यान या प्राणायाम के अभ्यास से बात नहीं बनेगी। सबसे पहले आसन, फिर प्राणायाम तथा उसके बाद किया गया ध्यान पीड़ित व्यक्ति को मनोकायिक रोग से मुक्ति दिला देता है।

 From YOG MANJRI by Shri Ved Prakash Rathi